दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
(चेतावनी- इस ब्लॉग के सर्वाधिकार (कॉपीराइट) ब्लॉग के संचालनकर्ता और लेखक वैभव आनन्द के पास सुरक्षित है।)

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

आँखों से आँखों का हाल पूछना है

आँखों से आँखों का हाल पूछना है ...
कैसे करती हो ये कमाल?
बाकी है जो दिल में वो मलाल पूछना है ...
 
आँखे झुकती हैं तो हया भी गश खाती है,
कैसे करती हो ये कमाल? पूछना है 
 
कैसे हो जाती है पूरी तुम्हारी मन्नते सारी?
दुआ में उठती उन आँखों का जलाल पूछना है ...
 
मेरी याद में जब आँखें बहाती हैं आंसू , 
तब  होता है दिल कितना बेहाल? पूछना है ...
 
पूछना है ये, वो भी पूछना है, 
कैसे गुज़ारा इतना साल? पूछना है...
 

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

स्वास्तिका : गंगा की बेटी गंगा के हवाले

रोती गंगा, रोते घाट....
"चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई....
६ साल की स्वस्तिका के लिए इस गाने का मतलब थोडा अलग है... उसकी डोली वो पत्थर है जिस से उसके बेजान शरीर को बंधा गया, और उसके पिया वो भगवान हैं जिनसे उसका आज मिलन हुआ... अगर महसूस कर सको तो उस बाप की वेदना महसूस करो, जो उसे गोद में उठा कर अंतिम संस्कार को ले आया... ६ साल की बेटी का भार उसके लिए नया नहीं है, ऐसा ही भार उसके सो जाने पर अक्सर महसूस करता था ये अभागा बाप, मगर अब उसके उठने का इंतज़ार किसी को नहीं है....जिन घाटो पर वो खेल के बड़ी हुई, जिन घाटों को उसके ब्याह की शहनाइयां सुननी थी... वो आज उसकी मौत की गवाह बन गयी...कल बनारस के घाट पर एक विस्फोट हुआ और स्वस्तिका की मौत की वजह बन गया..   गंगा मौन है, मगर गंगा की धारा की चीत्कार और सिसकियों के स्वर हर कोई महसूस कर रहा है...
किसने किया और किसने कराया ये बम विस्फोट? जांच होगी और पता चल जायेगा, मगर स्वस्तिका का बाप हर रोज़ घाट पर आएगा... इस उम्मीद में की शायद आज उसे यहीं कहीं खेलती स्वस्तिका मिल जाए..
इस बम विस्फोट पर मुझे कुछ नहीं कहना.. और न ही सरकार-प्रशासन पर ही कोई टिपण्णी करनी है.. आज तो बस देश में कश्मीर और देश की सीमाओं से आगे आकर  गहरे तक पैठ बना चुके आतंकवाद पर  मुझे मशहूर लेखक शिव खेडा की वो बात याद आ रही है... "अगर आप के पडोसी पर अन्याय हो रहा है, और आप चुप होकर घर में बैठ जाते हैं, तो यकीन मानिये, कल आपका ही नंबर है..."  क्या स्वास्तिका के पिता श्री संतोष कुमार शर्मा के पडोसी और हम सब ये समझ पा रहे हैं?

रविवार, 28 नवंबर 2010

बदनाम बस्ती: बहुत याद आतें हैं, बीते हुए पल

बदनाम बस्ती: बहुत याद आतें हैं, बीते हुए पल

बहुत याद आतें हैं, बीते हुए पल

बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.

वो नज़रें, जिसे ढूढती थीं हमेशा,
वो पाने की चाहत, छुपाना हमेशा,
अनजान बनके, सुनाना हमेशा,
मीर-ग़ालिब की कोई प्यारी ग़ज़ल.

बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.

आंगन में लेटे हुए रात को,
चाँद से रोज़ मिन्नत, करें रात को,
'पहुंचा दे, दिल की सदा रात को',
प्रेम-प्रश्नों से बिछड़ा था, हर एक हल.

बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.

किताबों के लफ़्ज़ों से, खट्टी फिर मिट्ठी,
लोरियों जैसी माँ की, वो सोंधी सी मिटटी,
बगिया में बीते, ज्यों गर्मी की छुट्टी,
खेल रातों में, बिस्तर की अदला-बदल.

बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.

हमारे बुजुर्गों की, टोली-ठिठोली,
रंगीन और, मीठी-मीठी सी होली,
मिश्री सी उसपे, वो अवधी की बोली,
छौंक उसमे खड़ी बोली, का था शगल.

बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.

पिताजी की गोदी में, छुपना-सहमना,
वहीँ लेटे-लेटे, ध्रुवतारा तकना,
परछाइयों का रोज़, शक्लें बदलना,
तब शंखो-अजानो के सुर थे युगल.

बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.


रविवार, 24 अक्तूबर 2010

किस्मत के हर्फ

भीगी आँखें अश्को से       अब कहाँ होती है,
वो मेरी किस्मत के हर्फों से    बयां होती है...

वो मेरा था जिसे तुमने        उसको दे दिया,
हर बार येही एक शिकायत खुदा से होती है..

अभी और भी है राहें           तू चुन तो सही,
हर हार के बाद बस ये ही दिलासा होती है...

हैं पेंचो ख़म बहुत इस       आँख मिचौली में,
अब तो ये एक आदत            जैसी होती है...

तमाम उम्र एक फिकरे से परेशान रहे, अब,
उसी फिकरे में ढली अपनी जुबान होती है...

कमीन लोग यहाँ       मीठे खंजर रखते हैं,पर
उन्ही से दोस्ती, आजकल मिलकियत होती है...

वो आंसुओं में भीगी     चिठ्ठी मुझे लिखता है,
मगर वो हमेशा        मुझ तक नहीं पहुँचती है...

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

ढाबा

रोज़ 'चित्रों' को,


हम परोसते हैं,

'शब्द' और 'आवाज़' से,

उन्हें छौकते हैं,

छन से आवाज़,

छौंक की होती है,

"क्या यार...ज़रा धीरे से"

बड़े हलवाई चीखते हैं...

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

बदनाम बस्ती: ये प्यासा बड़ा पुराना है...

बदनाम बस्ती: ये प्यासा बड़ा पुराना है...

ये प्यासा बड़ा पुराना है...

हर दिन की वही कहानी थी,
पर रातों का नया फ़साना है,
आँखों से रात को  छलकेगा,
जो अश्क अभी अंजाना है ...
मुझे रात ही अपनी लगती है,
तारों का लश्कर भाता है,
उसे रात ही मुझमे घुलना है,
दिन में बस नज़र चुराना है..
जिसे मैंने बड़ा संभाला है,
वो जज्बातों का दरिया है,
लहरों  से हूक निकलती है,
पर वो इस से बेगाना है...
वो पास से गुज़रे,आस जगा दे,
न दिक्खे उम्मीद भुला दे,
नीम नशा कैसा है ये,
इसे कैसे दिल से हटाना है?
एक बार वही दिल धड़का है,
जिसे मैंने कभी भुलाया था,,
फिर धड़कन नयी नयी सी है,
फिर दिल का वही बहाना है..
इस बार इसे जी लेने दो,
इस बार इसे पी लेने दो,
मत छीनो इससे,इसके प्याले,
ये प्यासा बड़ा पुराना है...

सोमवार, 20 सितंबर 2010

फिर भी इक ये टीस है

एक पुराना सा था जो, सम्बन्ध वो भी ख़त्म हुआ,
जैसे दिल के कमरों से गर्द-ओ-गुबार हट गया.

खिड़कियाँ फिर खोल मन की निहारने बैठा हूँ सब,
आज फिर से धूप का टुकड़ा नया सा भर गया.

अटका हुआ था एक खटका, रोकता जुबान था,
आज ढंग  से उसको  सुपुर्द, काग़ज़ों के कर दिया.

अब वहां काग़ज़ दबा हैं  इबारतों के बीच में,
'और मैं, आराम से हूँ', ख़त में मैंने लिख दिया.

अब मैं चाहे जो करूँ आज़ाद हूँ सब बन्धनों से,
फिर भी इक ये टीस है, की, बेहद अकेला हो गया.

तनहईयों की सारी ही  फेहरिस्त अब ग़ुम हो गई,
मजमून लेकिन था कुछ ऐसा की मझमे वो घर कर गया.



गुरुवार, 16 सितंबर 2010

जिस नूर से रोशन था मैं...

मैं ही निशाना हो गया...
इस जहाँ की बंदिशों में, क़ैद हो कर रह गया,
चाहता था गुनगुनाना, सरगमो में खो गया.


है कई नश्तर ज़माने की गिरहबानो में, मगर,

हर किसी का एक मैं ही, क्यों निशाना हो गया.


एक परिंदा दिल था वो भी, उड़ चला गुमनाम सा,
राह के पत्थर से यारी, कर के  उसपे सो गया.


मिन्नत बहुत की उस से लेकिन, वो भी कुछ मजबूर था,
और फिर कुछ यूँ  हुआ, वो कारवां में खो गया.


थी बड़ी ये आरज़ू की मिल सकूं एक बार उस से,
पर जुबान कैसे ये कहती, "जो हो गया-सो हो गया".


अब न कोई राहतें, राह में मेरे बची,
जिस नूर से रोशन था मैं, बेसुध सा वो ही सो गया.


है येही उम्मीद बस की एक दिन वो ये कहेगा,
"मै तेरे जैसे से क्यूँ बेगाना सा हो गया" ?

रविवार, 12 सितंबर 2010

कितनी बार ओमकारा ?

सलमान खान की "दबंग" ओमकारा का नया संस्करण है. गुलज़ार और विशाल भरद्वाज को इन फिल्मो पर केस कर देना चाहिए. दुःख इस बात का भी है की दर्शकों की भूलने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ है और इस फिल्म को खूब दर्शक मिल रहे हैं. शायद इसका एक कारण, वो बेहद फूहड़ और अश्लील, जिसे गीत कहना भी गीतों की तौहीन होगी, हाँ! भांडगिरी कह सकते हैं, "मुन्नी बदनाम हुई" है.
हद तो ये है की ओमकारा की हूबहू नक़ल इसका शीर्षक गीत "दम दबंग दबंग" है. जिसकी धुन ओमकारा से मिलती जुलती है. गायक भी सुखविंदर सिंह हैं. कहानी और उसको कहने का अंदाज़ भी ओमकारा की नक़ल मात्र है. दबंग अनुभव कश्यप की है तो इस मामले में अनुराग कश्यप भी पीछे नहीं हैं, उन की फिल्म देव डी मणिरत्नम की युवा की कहानी बताने की तर्ज पे थी. तो गुलाल, ओमकारा और हासिल का मिश्रण. बेहद चालाकी से इनके प्रोमो बनाते हैं ये नकलची बन्दर जैसे निर्देशक, और फिल्म देख के अपना सर फोड़ने का मन करता है. वैसे नक़ल में राजकुमार हिरानी भी पीछे नहीं. उनकी दो फिल्म क्या हिट हुई तीसरी में उन्ही दोनों के तडके को मिक्स कर परोस दिया, क्योंकि वो जानते थे की केवल  3 idiots ही इंडिया में नहीं हैं, बल्कि करोड़ों की फ़ौज है जो रुपये खर्च करके भी बासी कढ़ी खाने को उतावली रहती है. तो अगर दबंग को करोड़ों का बिजनेस मिल रहा है तो कोई आश्चर्य नहीं. हमारे दर्शक ही मूर्ख है. जिन्हें पहले राजनेता बेवकूफ बनाते हैं और फिर फिल्म निर्माता से ले कर साबुन निर्माता तक. 
यानी हर जगह बेवक़ूफ़ जनता और दर्शक ही बनते हैं. वाकई ये हमारे लिए महा-त्रासदी का दौर है. 

शनिवार, 21 अगस्त 2010

बंदरों से बचाओ

बन्दर के हाथ,                 
उस्तूरे की फांस,
अटकी है,
हजामत कराने  वालों की सांस,
छुडाए  कैसे अपनी गर्दन, 
हर कोई  सोचता बैठा है,
मगर कितनी दफा,
यहाँ तो हर राह, पे,
उस्तुरा चमकाता,
...एक बन्दर बैठा है.

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

आमिर का कूड़ा, अनुषा की गालियाँ

पिप्पली लाइव की  चर्चा हर कहीं हैं... मगर मुझे उस नौजवान दर्शक की टिपण्णी याद आ रही है जो फिल्म ख़तम होने के बाद ये कहता निकल रहा था, "मज़ा आया, बहुत अच्छी कॉमेडी थी..." पहले जिस तरह हम आदिवासिय्यों के अर्ध-नग्न पोस्टर्स से घर सजाते थे, और उसे कला का नमूना मानते थे,  ठीक वैसे ही आज हमारे गाँव और वहां की समस्याएं हमारे घर सजाने का सामान और कॉमेडी की भरपाई का यंत्र बन गए हैं.
आमिर खान ने माल संस्कृति के दर्शको के लिए पिप्पली लाइव बनायी, और मल्टीप्लेक्स  का दर्शक इसकी गंभीरता को दरकिनार करते हुए इसपे हँसता हुआ मनोरंजन का मसाला समझ देख रहा है. नत्था की बेबसी पर उसे हंसी छूट रही है. बुधिया की गालियों को वो बड़े प्यार से सुन रहा है...
गालियाँ उसे फिल्म से जोड़ रही हैं... मगर सवाल ये है की क्या इतने गंभीर विषय को देखने और समझने की ताकत मल्टीप्लेक्स  के दर्शको की है?
फिल्म की बात करें तो इसमें नया कुछ भी नहीं है. फिल्म की कहानी अनुषा ने मुंशी प्रेमचंद की "कफ़न" से चुरा ली है, जहाँ बीवी के लिए कफ़न खरीदने गए दोनों पात्र दारु में टल्ली हो झूमते हैं और बीवी अन्दर तड़प तड़प के मर जाती है...  फिल्म में अनुषा ने  राज कपूर की "तीसरी कसम" की तरह गीत डाल दिया, उसमे "चलत मुसाफिर था... , इसमें "महंगाई डायन...." है ... 
विशाल भारद्वाज की "ओमकारा" की तरह बेवजह की गालियाँ हैं.. और "मैं आज़ाद हूँ" की तरह मीडिया की लड़ाई और नायक के मरने की खबर का फायदा उठाते नेता और सरकार...
मीडिया के एक "दम्पति पत्रकार" (राधिका और प्रणव रॉय) को फिल्म की शुरुआत में धन्यवाद दिया गया है, जिसने की फिल्म में संसाधन उपलब्ध कराये होंगे, तो साहब वो कैसे पीछे रहते, लगे हांथों उन्होंने एक "ख़ास" न्यूज़ चैनल (स्टार)के एक "ख़ास" रिपोर्टर (दीपक चौरसिया)पर "खुन्नस" निकाल डाली है...
इतने गंभीर विषय को अच्छा ख़ासा मज़ाक बना दिया है आमिर खान ने, अब वो अपनी फिल्म की नुमाइश दुनिया भर में करेंगे "इंडिया सर ये चीज़ धुरंधर..." की रटन लगायेंगे और हो सकता है, इस बार वो "लगान" से ज्यादा पुरस्कार पा जाएँ... 
देश की गन्दगी को शायद आमिर अब पश्चमी देशों में वाहवाही लूटने के लिए ही परदे पर ला रहे हैं...आमिर के लिए उन्ही की इस फिल्म की वो लाइन बिलकुल फिट बैठती है... "जेब दलिद्दर, दिल है समुन्दर..." रुपये कमाने के बाद अब उनका दिल पुरुस्कारों का भूखा है, और भूखा आदमी कुछ भी खाने से नहीं चूकता...
ये हमारी बद्किस्माती है की हम इसे एक फिल्म मान कर बैठ जाते हैं... मगर गौर करने लायक ये है की ये फिल्म नहीं, देश के खिलाफ एक साज़िश है जिसे पूरी शिद्दत  के साथ परदे पर उतारा जा रहा है...

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

मेरे बचपन का गाँव...

इक मंदिर है, इक मस्जिद है, इक ताल, एक तलैया है,
कुछ पक्के हैं, कुछ कच्चे हैं,
कुछ छोटी बड़ी मड़ैया हैं,
कुछ खेत भी हैं, खलिहान भी हैं,
परधान का बड़ा मकान भी है,
ठंडी, गर्म हवाएँ हैं,
कजरी, चैती बिरहाये हैं,
जोगन भी है, जोबन भी है,
कुछ आहें और सदाएं हैं,
मेरे बचपन का गाँव है ये,
जिसकी कई कथाएँ हैं.

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

Less importnt for u, but other's needs that due...

Like a fresh rose,
Like a fresh drop of dew,
U r all new,
Can u tell me, who r u?

Soon I asked this,
To the grass and park…
I wasn’t alone,
In search of some unknown,
Seated on a bench,
Seeing either side’s
Graveyard, which is like my mood,
Compiled with gray tone.

After a bunch of time,
I’ll have to go back,
Take with a fresh air,
And backing like relax track,
And
Like a river moved from
Banks,
I too moved from here,
Till tomorrow evening,
This bench and this park’s
Slightly yellowish grass,
Would Play with my,
All thrown sorrows,
And heavy mood,
Like a ping-pong….

Tomorrow,
Will back I,
They both will goose me
With there
Child like eye…
Nothing happened.
Act and lie –
“We don’t use the thrown
Things…Noah…”



मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

ग्यारह महीने...

अपने घर में इक कील भी लगाओ तो,

वो अपनी सी लगती है,

ऐसा मेरी माँ कहती थी,

अक्सर मेरे पिताजी से..

सरकारी नौकरी में,

इमानदारी की मिसाल बन,

अपने घर का सपना पालना?

पिताजी उस पहाड़ की ऊँचाई से वाकिफ थे,

पर माँ तो माँ है,

उसके लिए चौतरफा दबाव है,

...कुछ बेच के,

इमानदारी को निचोड़ के,

पुरखों के सपने ख़ाक कर,

एक सरकारी योजनाओं का,

घर ले ही लिया,

मगर जब रहने की बारी आई

तो तबादला और बिमारी लायी,

फिर उस "अपने" घर में ताला लगा,

कुछ बर्तन और कुछ बिस्तर ले,

एक नए शहर में...

सब कुछ "अपने" घर में,

ताले में बंद था,

यहाँ, हर महीने मकान-मालिक.

का "पठान" की तरह आना.

माँ का आश्वासन की कल आना

हर ग्यारह महीने पर,

मकान बदलने की,,

प्रसव-वेदना सा झेलना...

एक तनख्वाह,

ज़मीन पे सोना,

पिताजी और माँ का कहना,

क्या करना है यहाँ कुछ सामान खरीद कर,

कोशिश करिए,

वापस अपने शहर तबादला ले लीजिये,

बाट जोहते तबादले की,

साल दर साल निकलते गए,

माता और पिताजी,

बुढ़ापे की और बढ़ते गए,

मगर अपने घर की आस में,

हम किसी और घर में,

अपने अपने कोने की हिफाज़त करते रहे,

यही सोच, किराए के घर को

नए शहर को,

और उस नए शहर के लोगों को

ये सोच न अपना सके की,

"ये अपना नहीं है",

एक दिन हम "अपने" घर में जायेंगे,

आखिर किराये के मकान में ही,

पिताजी रिटायर हो गए,

दिल में अनेको दर्द लिए,

दिल के ओपरेशन की डगर चल दिए,

फिर 'अपने" घर जाने के इंतज़ार में,

कई साल कौवो को सुन सुन के बिताये,

बात बेटियों की शादी की आई,

"अपने" बेगाने हुए,

तो फिर "अपने" घर की याद आई.

इस बार, उसका दाम लगा,

बिक गया,

बेटी की शादी हुई,

लेकिन माँ का सपना,

अधूरा रहा ,

कुछ साल, और भटक के,

हर ग्यारह महीने में

जड़ से कट कट के...

पिताजी इस दुनिया से उठ गए,

किराए के माकन से ही उनका

जनाज़ा निकला,

माँ आज भी रोती हैं,

मगर किराए के घर की दीवारों के सिवा,

उनके आंसुओं का कोई और,

गवाह नहीं है....

बेटा अभी भी ग्यारह महीने के खौफ्फ़,

में ही जीता है,

माँ, अपने भगवान् की मूर्तियों,

के लिए हर नए किराये के मकान में,

जगह ढूंढ लेती है...

ग्यारह, दस, नौ, आठ….

वो उलटी गिनती,

जो माँ की चिंता का सबब है,

और जो बेटे के माथे की

बढती चौड़ाई से भी,

डरती नहीं है,

वो तो बस घटती जा रही है,

ग्यारह, दस, नौ, आठ…..

==============

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

यमराज ढूढ़ते रहते हैं.....

प्रिय मित्रों से विनम्र निवेदन

प्रिय मित्र,
इस कविता को पढने के बाद, मैं आग्रह करूँगा की आप नीचे कविता के अंत में लिखे दो पौराणिक दृष्टांत को ज़रूर पढ़े, इस से इस कविता के भाव को समझने में आसानी होगी.... आपके सुझाव और आलोचनाओ का का हमेशा की तरह इंतज़ार रहेगा -

आपका शुभेक्छु
वैभव अ. श्रीवास्तव
__________________________________________
यमराज ढूढ़ते रहते हैं....


हम न घर के वासी हैं
न मठ के सन्यासी हैं,
हम मृत्युलोक के नचिकेता* हैं,
अपनों से दुत्कार मिली,
यमराज ढूढ़ते रहते हैं.....

जीवन अपना शमशान हुआ है,
स्वाभिमान की चिता सजी,
वर्तमान से लड़ने की,
हमको ऐसी सजा मिली,
हम दधिची** बन के भी हारे,

त्याग किया, फटकार मिली,
यमराज ढूढ़ते रहते हैं.....


हम संस्कार के, मृदु जालों में,
तार-तार हो, बैठ गए,
अभाव आचमन का होने से,
भाग्य-विधाता रूठ गए,
पिए गरल* हमने भी बहुत,
पर नीलकंठ पदवी न मिली,
यमराज ढूढ़ते रहते हैं..... [*गरल - विष या ज़हर ]


झूठ-कपट सिरमौर बना है,
सत्य सिसकियाँ लेता है,
अर्थ, अनर्थ मचा जाता,
जब पेट हिचकियाँ लेता है,
हरिश्चंद्र आदर्श बना के,
भूख मिली, रोटी न मिली,
यमराज ढूढ़ते रहते हैं.....

(पौराणिक कहानी )
[1]*नचिकेता - बालक नचिकेता ने जब देखा की उसके पिता बूढी गायों को कसाई को दान दे रहे हैं, तो उसने पिता से पुछा की आप ऐसा क्यों कर रहे है, तो उत्तर मिला की अब ये सब किसी काम की नहीं रह गयी हैं, इसलिए इनको पाल कर इन पर खर्च करना बेकार है, नचिकेता दुखी हुआ और पूछने लगा की पिताजी, अगर कल को मैं किसी काम लायक नहीं बचा तो आप मुझे किसको दान करेंगे, और ये प्रश्न वो उनसे बार बार करता रहा, गुस्से में पिता ने कह दिया "तुझे यमराज को दान कर दूंगा", ये सुन कर बालक घर से निकल कर जंगल में भटकता रहा और यमराज को ढूढता रहा.... यमराज ने उसे दर्शन दिए और उसकी जिज्ञासाओं को शांत किया...

[2]**दधिची - ऋषि दधिची ने अपने पुरखो को तारने के लिए अपने शरीर की हड्डियों तक को दान कर दिया था...

हवाएं तय करेंगी...

मस्तूल* पे न बस कोई, माझी करे दुआएं,
हवाएं तय करेंगी,अब, कश्तियों की दिशायें...

मुहब्बत सरहदों सी, इंसानियत वतन है,
एक दुसरे में कैसे हो मेल अब बताएं.......

हमसे बड़ी हुई हैं, आपकी परछाईं,
अब अपने आप को हम, किस नाम से बुलाएँ.....

"भयानक है दौर लेकिन गुजरेगा एक दिन ये ",
आपकी  तसल्ली में, कैसे दिन बिताएं....

है घर में अपने लटके, उल्लू बेबसी के,
तो कैसे हम आपको, मेहमान सा बुलाएँ....

जब तक रहे वो गैर तो पोशीदा रहे हर राज़,
अब बन गए हमराज़, तो कैसे कुछ छुपायें?...

बुज़ुर्ग से हैं हाथ, और मजबूरियां जवान,
बस एक ही "बिजूका"** कब तक फसल बचाए.....


*मस्तूल = वो लम्बा सा बांस का डंडा, जिस से नाविक नाव को धकेल के दिशाए देता है....
**बिजूका = खेतों में पंछियों को धोखे में रखने के लिए लगाया जाने वाला आदमकद पुतला

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

बादशाह , नमस्ते नहीं करते

"बादशाह , नमस्ते नहीं करते , वो सलाम करते हैं .." जल्द ही आप पढ़ सकेंगे... यहीं पर...

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

गुमशुदा

हमारी  आवाज़  में  न  हक  की  लड़ाई  थी ,



न  निगाहों  में  कोई  अदावत  की  थी  परछाई,


मगर  फिर  भी  हजारो  टुकड़े  किये  इस  दिल  के , दुनिया  ने ,


और  ऐसे  बिखरा  उनको ,


की लाख  कोशिशों के बाद भी ,


तस्वीर  पुराने  से  दिल  की  मुकम्मल  नहीं होती,


शायद ! वो  एक  टुकड़ा ,


आज  तक , कहीं  गुमशुदा  सा ही  है ...

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

दिल्ली और आस-पास

ऐ मेरे आका, कुछ जुगत ऐसी  भिड़ा,
इतवार को ही सारी भेड़े न चारा....

उनको लगाव  है, गालियों से इस कदर,
पूछते हैं हमसे, दिल्ली में नए हो क्या?...

दिल्ली के आस-पास, कंक्रीट के जंगल, हैं भेड़िये उनमे,
पहन कोट ठाठ से , भेड़ों की खाल का...

निकल गए वो जब सड़कों पे एक साथ,
एहसान का धुआं छोड़, खुंखारते "हुआ-हुआ " सा...

पांच दिन के काम की, थकान उतारने को,
माल में लड़े, हड्डी  पे कुत्तों सा... 

इन भेड़ियों से बच के, चलना ही होगा,
है इनको बड़ा गुमान, दिल्ली में बसने का...

सैकड़ों मील दूर, है बीवियां इनकी,
यहाँ पे है तमगा, निपट कुवारेपन का...

हैं औरते यहाँ, कुछ अलग, खूबसूरत,
देखें वो इनको, धंधेवालियों सा...

यहाँ पर सभी को बेवक़ूफ़ बना के,
लौटेंगे छुट्टियों में घर, रण-बांकुरों सा...



  

  

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

ख्याल में आया जाये...


सोचता हूँ की कैसे उनके ख्याल में आया जाये,.

गढ़ू कौन सा तिलिस्म, की मिसाल में आया जाये...


मैं ये हूँ, मैं वो हूँ, लिख-लिख के थक गया हूँ,

तरस खा सके सभी, ऐसे किस हाल में आया जाये....


हूँ उनके खेल का अदना सा, छोटे दायरे वाला प्यादा,

सोच में हूँ की कैसे, उनके शह में काम आया जाए...


वो राजा हैं, मैं गंगुआ हूँ, तरकीब तो बताओ,

जूं बन के उनके कान पे किस तरह रेंगा जाए...


वो खा चुके कई गरीबों के घर नमक-रोटी,

अब उनको नमक-हलाली के, जज़्बात सिखलाया जाये...


दो कदम अर्जिया, मेरी बढ़ी उनके तलक,पर ,

उड़ते सिफारिशी पैगाम से, कदम कैसे मिलाया जाये....


अटक गयी है फिर से, मुंडेरों पर पतंग सी उम्मीदें ,

महराब के घुमाओ में, कब तक सर खपाया जाये...

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

हर इक बात बेमानी...

नजाकत से नफासत तक, हर इक बात बेमानी,

हटा लो उसको, जिसकी, मर चुका है आँख का पानी...



अदा उसकी कोई भी, दिल को छु कर नहीं गुजरी,

की सब जानते हैं, उसकी दिखावे की है कुर्बानी...



वो जो करते हैं, बेहद ढंग से, सजदे नमाज़ों में,

उनके सर कई है जुल्म गुमनामी...



है उनके हाथ में ताक़त मगर आका है वो अपना,

बचे फसलें भला कैसे, है चूहों की निगेहबानी...



उनका ही कमाल है , बताऊँ कैसे ये तुमको,

बनाते कायदे वो ही, है उनका लफ्ज़ फ़रमानी...



बन्दर-बाट में माहिर, है तबियत के धनी बेहद,

झुकें गर्दन जो सजदे में, बख्शें उसको ही हमनामी...

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

बन के आंसू ...

बन के आंसू जो गिरा मैं नज़र से, ख़ाक हुआ,
और उनकी ज़रा सी आह पे लाखों का  जिगर चाक हुआ....
हमने मस्जिद से जब आजान दी,
अल्लाह बेहद खुश, मगर काजी नाराज़ हुआ...
उसका था ये ही अफ़सोस की, मैं अनजान क्यों हुआ,
जो पाक था वो रिश्ता, पल में ही नापाक हुआ....
दिल में छुपाये दर्द हमने , मजबूरियों को इलज़ाम दिया,
एक की खातिर, कईयों का, जज़्बात यूँ ही हलाक हुआ...
वो सनम था मुझे जान से प्यारा बेहद, मगर जिस्मों पे हावी, 
एक  दिमाग भी था, तो कुछ इस तरह तलाक़ हुआ...
जब एक खोटा सिक्का, चल गया बाज़ार में,
तो मचल उठा दिल, बेईमानी में बेबाक हुआ...
लिख लिख के उसको ख़त तमाम रातें खराब की,
मिट गया गम मगर, इश्क बे-नकाब हुआ....

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

बन के आंसू

बन  के  आंसू  जो  गिरा  मैं , नज़र  से , ख़ाक  हुआ ...
और उनकी ज़रा सी आह पे, लाखों का जिगर चाक हुआ...

HOW TO RECRUIT THE RIGHT PERSON FOR THE TV NEWS CHANNEL JOB?

STEP -001

PUT ABOUT 100 BRICKS IN SOME PARTICULAR ORDER IN A CLOSED ROOM WITH AN OPEN WINDOW.



STEP-002

THEN SEND 2 OR 3 CANDIDATES IN THE ROOM AND CLOSE THE DOOR.



STEP-003

LEAVE THEM ALONE AND COME BACK AFTER 6 HOURS AND THEN ANALYZE THE SITUATION.



NOW MATCH WITH BELOW MENTIONED RESULT-TABLE-

(FORMULA USED – IF – THEM)



If they are counting the Bricks again and again. Put them in the as an ANCHOR



If they are insisting the others for recounting them... Put them in INPUT...



If they have messed up the Whole place with the bricks. Put them in PRODUCTION AND PCR.



If they are arranging the Bricks in some strange order. Put them as RUN-DOWN PRODUCER.



If they are throwing the Bricks at each other. Put them in COORDINATION.



If they are sleeping. Put them as TICKER-CONTROLLER.



If they have broken the bricks into pieces. Put them in COPY-WRITING



If they are sitting idle. Put them in VIDEO-EDITING.



If they say they have tried Different combinations, yet not a brick has been moved. Put them in SPECIAL PROGRAMMES.



If they have already left for the day. Put them in REPORTING...



If they are staring out of the Window. Put them as PRODUCER FOR PRIME-TIME.



And then last but not least. If they are talking to each Other and not a single brick

has been moved. Congratulate them and put them as the ABOVE MENTIONED DEPARTMENT HEAD

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

देखता सब है खुदा .....!!

एक ख़त बिना नाम और पते का ,

डाल के देखा जो हमने,

वो लौट के फिर हाथ मेरे ही लगा,कहता हुआ -

"ये दुनिया है गोल ,

क्या इतना भी है तुझको पता?"...

मैंने कहा,"ऐ दोस्त,हमको ,

ये नहीं मालूम था ,

जब भी किसी को ख़त लिखा उसने

कहा न शुक्रिया, इसलिए इस बार मैंने

बे-पते का ख़त उछाला, पर तुझे

फिर पाके वापस, इतना तो अब समझा किया ,

की भीड़ में रहकर किया जो कोई हमने गुनाह ,

कोई पहचाने या न पहचाने ,

देखता सब है खुदा .....!!

दो बातें आप से

  (पहली बात)  "मुहब्बत की इबादत ही ,
हमारी आदत ही सही ...
उनकी वहशत भी सही ,
हमारी नजाकत भी सही ,
गर हमारी इबादत ,
जो क़ुबूल हो गयी ,
उनका तर्रुफ्फ़ भी नहीं ,
हमारी हर बात सही ...."
-----------------------------------------------
(दूसरी बात)
है तार्रुफ्फ़ यही की वो अब किस्सों की बात करता है...
जो जी नहीं पाया उन हिस्सों की बात करता है....
ये फितरत-ऐ-इंसान ही है, और कुछ नहीं....
जो कर नहीं पाया, वो सिर्फ बात करता है.....

इब्तदा-ऐ-इबादत

कभी हासिल , कभी खोयी ,
यही है इब्तदा-ऐ-इबादत ,
कभी बिस्तर पे सिलवट सी ,
कभी तस्वीर से अदावत ,
यही ज़िन्दगी का सच है ,
न इसमें हो रुकावट ,
हासिल , जो फासले है ,
यही उनकी है लिखावट ,
वैसे तो कब्र में ही ,
मिटती है हर थकावट .....

गले लगाया हार को

मेरी जीत से था
बस चंद फासला,
इतना
की मैं हाथ बढ़ा कर
उसे चूम लेता,
पर मैंने दौड़ के
गले लगाया हार को,
क्योंकि हार थी
मायूस, और बे-नूर,
सबने ही उसे बे-मन से अपनाया था,
मैंने हार चुन ली,
क्योंकि,
जीत मेरी फितरत नहीं थी,
अब मैं हूँ
और मेरे घर में,
मेरे साथ मेरी हार है,
वो बेहद एहसान मंद है मेरी,
और अक्सर,
मुझसे लिपट के रोती है,
कहती है,
"तुम जीत के लिए बने हो,
जाओ, उसे ले आओ",
पर मैं भी जज्बातों की किश्ती का,
अनोखा सवार हूँ,
जब तक जान है,
हार का साथ न छोडूंगा,
वो मेरी हमनवां,
हमसफ़र,
हमराज़ है,
जीत तो तवायफ है,
उससे वफ़ा की आस बेमानी है,
मैं जानता हूँ,
कल जब मैं फिर से तैयार होके,
और अपने को और ज्यादा सजा के,
गुजरुंगा उस बदनाम गली से,
तो वो झज्जे पे खड़ी,
मुझे इशारों से बुलाएगी,
चंद रुपयों की खातिर वो,
वो कुछ देर को मेरी हो जाएगी,
मगर तब भी हार मेरा घर पे रास्ता देखेगी,
मैं जीत के नशे में चूर,
जब लौटूंगा घर पे,
वो बड़े इसरार से पूछेगी,
आज बड़ी देर कर दी?
सुबह तक,
जीत की खुमारी उतरेगी,
और, बीती रात,
की कसक,
मेरी रुमालों में हफ्तों तक रहेगी,
किसी सस्ते ईत्र की तरह...

मेरी नींद बड़ी आवारा है

मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है,
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...

मै जाग-जाग, गिनता हूँ तारे,
वो तेरे ख्वाब सजाती है,
मैं करवट-करवट काटूं रातें,
वो दूर खड़ी मुस्काती है....

वो जालिम है, वो कातिल है,
टुकड़ों में मारा करती है...
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...

मेरे पास रही, दिन-रात रही,
फिर भी वो मेरी नहीं हुई,
ख्वाबो के महल सजाये कैसे,
बुनियाद ही जब है, हिली हुई,

अब रातें हैं, सन्नाटे हैं,
झींगुर की तान सताती है...
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...


जब तक वो पास रही मेरे,
सारी नज़रें उसको ही लगी,
अब मेरी तडपन पे दुनिया खुश,
हाय सभी की ऐसी लगी....

तू टूट गया, तू रूठ गया,
तेरे हाथों से सब छूट गया,
मेरे कान में बोला करती है,
(added by my friend anuraag muskan)
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...

शाम के बाद रात न आये...

ये धुआं -धुआं सी उलझने , और रास्तों पे धुंध सी ,
इतराई सी बलखाई सी हज़ार अदाओं से रिझाती,
पास से सरकती ज़िन्दगी सी ..
न कोई ओर -छोर इसका ,
न कोई पैमाइश ही इसकी,
ये सब्जबाग सपनो से,
ये हवाएं नशीली तीर सी,
ये नज़रें तंज और तेज़ सी...
ये जो गुज़र रही छुटते शहरों के रास्तों सी ,
ये उसी दयार पे लौटती,
उन्ही पहचानी शक्लों सी, ये उदास शाम सी घिरती,
ये टिमटिमाती दूर की रौशनी सी ...
ये हर घर की रात है ,
सब के सोने की जुगत सी ..
बड़ा दूर है ठिकाना मेरा,
इन अपनों में तो नहीं ही है,
तो ले चल कहीं दूर ऐ मेरे हाथों की आड़ी-तिरछी लाइने,
अजनबी शहर या गाँव,
जहाँ कोई अपना न हो,
जहाँ कोई पहचाने मंज़र न हो ....
जहाँ मुझे सबको फिर से जानने का एक और,
मौका मिले, एक और ज़िन्दगी,
एक और झूठी ही सही उम्मीद,
की शायद आज शाम के बाद रात न आये...

इस बस्ती से मुह चुरा के..

माना की इक चिराग भी मयस्सर नहीं, मेरी मज़ार पे,
पर एहसान कर गए वो, मुझे इनके बीच दफना के...

दिल को ये तस्सल्ली , हर रोज़ दे रहा हूँ,
सब पड़े है, एक नापसंद को पहलू में अपना के..

बाद मरने के ही सही, हमसायों के कद तो आ गया,
पछता रहे ,वो भी, शहरे-खामोशा के दस्तूर बना के....

सफ़ेद संगेमरमर से रोशन है कब्र उनकी,
पर खुश हूँ मै तो अपने पे गुलदार उगा के...

लाख वो निसार बार-बार हों अपने चिराग पे,
पर वो भी खौफज़दा हैं , स्याह मिट्टी में समां के....

ता-उम्र जब भी गुज़र गए वो सामने से मेरे,
ज़ख़्मी हुआ दिल उनकी हिकारत के वार पे....

अब वो भी हैं यहीं, हम भी हैं काबिज़ यहाँ पर,
अफ़सोस की सब लौट गए, एक कड़वी सच्चाई दफना के ...

इतरा रहे हो आज अपने रसूख पे, कल तुम भी आओगे,
कहाँ निकल सका है कोई, इस बस्ती से मुह चुरा के..

ज़रूरतें जवां हैं ...

मेरी जुबां पे चुप है, है उसकी जुबां पे ना है ,
मै उससे जीत जाऊँ ,मेरी औकात ही कहाँ है....

वो सोचता है महंगा, मुझको खरीदना है ,
कैसे उसे बताऊँ , की ज़रूरतें जवां हैं ...

पर आदमियत मेरी, रोकती जुबां है,
कैसे दिखाऊं उसको की, पैबंद कहाँ-कहाँ है....

इस रात की सियाही में, सब हर्फ खो गयें है,
हाले-दिल सुनाऊं, वो मज़मून ही कहाँ हैं....

है रफ्ता-रफ्ता बेहद, ज़िन्दगी का ये तमाशा,
बीच में लूँ रुखसत, वो मिजाज़ गुम यहाँ हैं..

इंतज़ार फिर भी उसके इक नूर का ही है,
जिसमे हो साफ़ ये की मेरी किस्मत में क्या कहाँ है....