क्यों कोसते हो शहर की बदनाम गलियों को, यहां हर मोड़ पर एक "बदनाम बस्ती" है...
दिल की नज़र से....
(चेतावनी- इस ब्लॉग के सर्वाधिकार (कॉपीराइट) ब्लॉग के संचालनकर्ता और लेखक वैभव आनन्द के पास सुरक्षित है।)
रविवार, 18 अक्टूबर 2009
नादान हूँ पर अनजान नहीं हूँ
माना की आज की तेज़ दुनिया में हमारा योगदान नहीं है....
तुम्हारे लिए हम नादान सही, पर हम अनजान नहीं हैं,
छोटे से घर के हिस्से में पड़े रहते हैं तो क्या,
आखिर हम इंसान है, सामान नहीं हैं.....
मत भूलो की हमने जवानी में ८४' के दंगे देखे थे,
और जिस दिन रिटायर हुए थे, जलते हुए उपहार सिनेमा के ठीक सामने से गुजरे थे,
आज भी याद है वो चीख, जब ८७' में अंसल भवन में आग का तांडव हुआ था,
कितनो ने ही जान बचने की खातिर, छलांग लगा दी थी,
हम ठीक उसी ईमारत के पास मूंगफली चबा रहे थे....
बहुत कुछ देखा है मैंने ज़िन्दगी में,
बस अफ़सोस ये ही है की तुम लोग, मेरा दर्द नहीं जान पाओगे...
दर्द उस टीस का , की मैंने तुम लोगों की खातिर ही,
इतना सब होने के बावजूद, लोगों की मदद नहीं की...
मुझे खुद के एक सामन की तरह कोने में पड़े रहने का उतना अफ़सोस नहीं है,
जितना की तुम बच्चो के लिए खुद को इंसानियत से हमेशा महरूम रखने का है,
वो भी किसके लिए ? ताकि मैं बचा रहूँ अपने परिवार के लिए....
इसीलिए कहता हूँ, नादान हूँ पर अनजान नहीं हूँ, इंसान हूं कोने में पड़ा सामान नहीं हूँ...
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