रविवार, 28 नवंबर 2010
बहुत याद आतें हैं, बीते हुए पल
बीते हुए पल.
वो नज़रें, जिसे ढूढती थीं हमेशा,
वो पाने की चाहत, छुपाना हमेशा,
अनजान बनके, सुनाना हमेशा,
मीर-ग़ालिब की कोई प्यारी ग़ज़ल.
बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.
आंगन में लेटे हुए रात को,
चाँद से रोज़ मिन्नत, करें रात को,
'पहुंचा दे, दिल की सदा रात को',
प्रेम-प्रश्नों से बिछड़ा था, हर एक हल.
बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.
किताबों के लफ़्ज़ों से, खट्टी फिर मिट्ठी,
लोरियों जैसी माँ की, वो सोंधी सी मिटटी,
बगिया में बीते, ज्यों गर्मी की छुट्टी,
खेल रातों में, बिस्तर की अदला-बदल.
बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.
हमारे बुजुर्गों की, टोली-ठिठोली,
रंगीन और, मीठी-मीठी सी होली,
मिश्री सी उसपे, वो अवधी की बोली,
छौंक उसमे खड़ी बोली, का था शगल.
बहुत याद आतें हैं,
पिताजी की गोदी में, छुपना-सहमना,
वहीँ लेटे-लेटे, ध्रुवतारा तकना,
परछाइयों का रोज़, शक्लें बदलना,
तब शंखो-अजानो के सुर थे युगल.
बहुत याद आतें हैं,
बीते हुए पल.
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