एक ख़त बिना नाम और पते का ,
डाल के देखा जो हमने,
वो लौट के फिर हाथ मेरे ही लगा,कहता हुआ -
"ये दुनिया है गोल ,
क्या इतना भी है तुझको पता?"...
मैंने कहा,"ऐ दोस्त,हमको ,
ये नहीं मालूम था ,
जब भी किसी को ख़त लिखा उसने
कहा न शुक्रिया, इसलिए इस बार मैंने
बे-पते का ख़त उछाला, पर तुझे
फिर पाके वापस, इतना तो अब समझा किया ,
की भीड़ में रहकर किया जो कोई हमने गुनाह ,
कोई पहचाने या न पहचाने ,
देखता सब है खुदा .....!!
बुधवार, 3 फ़रवरी 2010
दो बातें आप से
(पहली बात) "मुहब्बत की इबादत ही ,
हमारी आदत ही सही ...
उनकी वहशत भी सही ,
हमारी नजाकत भी सही ,
गर हमारी इबादत ,
जो क़ुबूल हो गयी ,
उनका तर्रुफ्फ़ भी नहीं ,
हमारी हर बात सही ...."
-----------------------------------------------
(दूसरी बात)
है तार्रुफ्फ़ यही की वो अब किस्सों की बात करता है...
जो जी नहीं पाया उन हिस्सों की बात करता है....
ये फितरत-ऐ-इंसान ही है, और कुछ नहीं....
जो कर नहीं पाया, वो सिर्फ बात करता है.....
हमारी आदत ही सही ...
उनकी वहशत भी सही ,
हमारी नजाकत भी सही ,
गर हमारी इबादत ,
जो क़ुबूल हो गयी ,
उनका तर्रुफ्फ़ भी नहीं ,
हमारी हर बात सही ...."
-----------------------------------------------
(दूसरी बात)
है तार्रुफ्फ़ यही की वो अब किस्सों की बात करता है...
जो जी नहीं पाया उन हिस्सों की बात करता है....
ये फितरत-ऐ-इंसान ही है, और कुछ नहीं....
जो कर नहीं पाया, वो सिर्फ बात करता है.....
इब्तदा-ऐ-इबादत
कभी हासिल , कभी खोयी ,
यही है इब्तदा-ऐ-इबादत ,
कभी बिस्तर पे सिलवट सी ,
कभी तस्वीर से अदावत ,
यही ज़िन्दगी का सच है ,
न इसमें हो रुकावट ,
हासिल , जो फासले है ,
यही उनकी है लिखावट ,
वैसे तो कब्र में ही ,
मिटती है हर थकावट .....
यही है इब्तदा-ऐ-इबादत ,
कभी बिस्तर पे सिलवट सी ,
कभी तस्वीर से अदावत ,
यही ज़िन्दगी का सच है ,
न इसमें हो रुकावट ,
हासिल , जो फासले है ,
यही उनकी है लिखावट ,
वैसे तो कब्र में ही ,
मिटती है हर थकावट .....
गले लगाया हार को
मेरी जीत से था
बस चंद फासला,
इतना
की मैं हाथ बढ़ा कर
उसे चूम लेता,
पर मैंने दौड़ के
गले लगाया हार को,
क्योंकि हार थी
मायूस, और बे-नूर,
सबने ही उसे बे-मन से अपनाया था,
मैंने हार चुन ली,
क्योंकि,
जीत मेरी फितरत नहीं थी,
अब मैं हूँ
और मेरे घर में,
मेरे साथ मेरी हार है,
वो बेहद एहसान मंद है मेरी,
और अक्सर,
मुझसे लिपट के रोती है,
कहती है,
"तुम जीत के लिए बने हो,
जाओ, उसे ले आओ",
पर मैं भी जज्बातों की किश्ती का,
अनोखा सवार हूँ,
जब तक जान है,
हार का साथ न छोडूंगा,
वो मेरी हमनवां,
हमसफ़र,
हमराज़ है,
जीत तो तवायफ है,
उससे वफ़ा की आस बेमानी है,
मैं जानता हूँ,
कल जब मैं फिर से तैयार होके,
और अपने को और ज्यादा सजा के,
गुजरुंगा उस बदनाम गली से,
तो वो झज्जे पे खड़ी,
मुझे इशारों से बुलाएगी,
चंद रुपयों की खातिर वो,
वो कुछ देर को मेरी हो जाएगी,
मगर तब भी हार मेरा घर पे रास्ता देखेगी,
मैं जीत के नशे में चूर,
जब लौटूंगा घर पे,
वो बड़े इसरार से पूछेगी,
आज बड़ी देर कर दी?
सुबह तक,
जीत की खुमारी उतरेगी,
और, बीती रात,
की कसक,
मेरी रुमालों में हफ्तों तक रहेगी,
किसी सस्ते ईत्र की तरह...
बस चंद फासला,
इतना
की मैं हाथ बढ़ा कर
उसे चूम लेता,
पर मैंने दौड़ के
गले लगाया हार को,
क्योंकि हार थी
मायूस, और बे-नूर,
सबने ही उसे बे-मन से अपनाया था,
मैंने हार चुन ली,
क्योंकि,
जीत मेरी फितरत नहीं थी,
अब मैं हूँ
और मेरे घर में,
मेरे साथ मेरी हार है,
वो बेहद एहसान मंद है मेरी,
और अक्सर,
मुझसे लिपट के रोती है,
कहती है,
"तुम जीत के लिए बने हो,
जाओ, उसे ले आओ",
पर मैं भी जज्बातों की किश्ती का,
अनोखा सवार हूँ,
जब तक जान है,
हार का साथ न छोडूंगा,
वो मेरी हमनवां,
हमसफ़र,
हमराज़ है,
जीत तो तवायफ है,
उससे वफ़ा की आस बेमानी है,
मैं जानता हूँ,
कल जब मैं फिर से तैयार होके,
और अपने को और ज्यादा सजा के,
गुजरुंगा उस बदनाम गली से,
तो वो झज्जे पे खड़ी,
मुझे इशारों से बुलाएगी,
चंद रुपयों की खातिर वो,
वो कुछ देर को मेरी हो जाएगी,
मगर तब भी हार मेरा घर पे रास्ता देखेगी,
मैं जीत के नशे में चूर,
जब लौटूंगा घर पे,
वो बड़े इसरार से पूछेगी,
आज बड़ी देर कर दी?
सुबह तक,
जीत की खुमारी उतरेगी,
और, बीती रात,
की कसक,
मेरी रुमालों में हफ्तों तक रहेगी,
किसी सस्ते ईत्र की तरह...
मेरी नींद बड़ी आवारा है
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है,
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मै जाग-जाग, गिनता हूँ तारे,
वो तेरे ख्वाब सजाती है,
मैं करवट-करवट काटूं रातें,
वो दूर खड़ी मुस्काती है....
वो जालिम है, वो कातिल है,
टुकड़ों में मारा करती है...
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...
मेरे पास रही, दिन-रात रही,
फिर भी वो मेरी नहीं हुई,
ख्वाबो के महल सजाये कैसे,
बुनियाद ही जब है, हिली हुई,
अब रातें हैं, सन्नाटे हैं,
झींगुर की तान सताती है...
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...
जब तक वो पास रही मेरे,
सारी नज़रें उसको ही लगी,
अब मेरी तडपन पे दुनिया खुश,
हाय सभी की ऐसी लगी....
तू टूट गया, तू रूठ गया,
तेरे हाथों से सब छूट गया,
मेरे कान में बोला करती है, (added by my friend anuraag muskan)
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...
तेरे पास ही डोला करती है,
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मै जाग-जाग, गिनता हूँ तारे,
वो तेरे ख्वाब सजाती है,
मैं करवट-करवट काटूं रातें,
वो दूर खड़ी मुस्काती है....
वो जालिम है, वो कातिल है,
टुकड़ों में मारा करती है...
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...
मेरे पास रही, दिन-रात रही,
फिर भी वो मेरी नहीं हुई,
ख्वाबो के महल सजाये कैसे,
बुनियाद ही जब है, हिली हुई,
अब रातें हैं, सन्नाटे हैं,
झींगुर की तान सताती है...
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...
जब तक वो पास रही मेरे,
सारी नज़रें उसको ही लगी,
अब मेरी तडपन पे दुनिया खुश,
हाय सभी की ऐसी लगी....
तू टूट गया, तू रूठ गया,
तेरे हाथों से सब छूट गया,
मेरे कान में बोला करती है, (added by my friend anuraag muskan)
जब उसको पास बुलाता हूँ,
बस तुझको निहारा करती है...
मेरी नींद बड़ी आवारा है,
तेरे पास ही डोला करती है...
शाम के बाद रात न आये...
ये धुआं -धुआं सी उलझने , और रास्तों पे धुंध सी ,
इतराई सी बलखाई सी हज़ार अदाओं से रिझाती,
पास से सरकती ज़िन्दगी सी ..
न कोई ओर -छोर इसका ,
न कोई पैमाइश ही इसकी,
ये सब्जबाग सपनो से,
ये हवाएं नशीली तीर सी,
ये नज़रें तंज और तेज़ सी...
ये जो गुज़र रही छुटते शहरों के रास्तों सी ,
ये उसी दयार पे लौटती,
उन्ही पहचानी शक्लों सी, ये उदास शाम सी घिरती,
ये टिमटिमाती दूर की रौशनी सी ...
ये हर घर की रात है ,
सब के सोने की जुगत सी ..
बड़ा दूर है ठिकाना मेरा,
इन अपनों में तो नहीं ही है,
तो ले चल कहीं दूर ऐ मेरे हाथों की आड़ी-तिरछी लाइने,
अजनबी शहर या गाँव,
जहाँ कोई अपना न हो,
जहाँ कोई पहचाने मंज़र न हो ....
जहाँ मुझे सबको फिर से जानने का एक और,
मौका मिले, एक और ज़िन्दगी,
एक और झूठी ही सही उम्मीद,
की शायद आज शाम के बाद रात न आये...
इतराई सी बलखाई सी हज़ार अदाओं से रिझाती,
पास से सरकती ज़िन्दगी सी ..
न कोई ओर -छोर इसका ,
न कोई पैमाइश ही इसकी,
ये सब्जबाग सपनो से,
ये हवाएं नशीली तीर सी,
ये नज़रें तंज और तेज़ सी...
ये जो गुज़र रही छुटते शहरों के रास्तों सी ,
ये उसी दयार पे लौटती,
उन्ही पहचानी शक्लों सी, ये उदास शाम सी घिरती,
ये टिमटिमाती दूर की रौशनी सी ...
ये हर घर की रात है ,
सब के सोने की जुगत सी ..
बड़ा दूर है ठिकाना मेरा,
इन अपनों में तो नहीं ही है,
तो ले चल कहीं दूर ऐ मेरे हाथों की आड़ी-तिरछी लाइने,
अजनबी शहर या गाँव,
जहाँ कोई अपना न हो,
जहाँ कोई पहचाने मंज़र न हो ....
जहाँ मुझे सबको फिर से जानने का एक और,
मौका मिले, एक और ज़िन्दगी,
एक और झूठी ही सही उम्मीद,
की शायद आज शाम के बाद रात न आये...
इस बस्ती से मुह चुरा के..
माना की इक चिराग भी मयस्सर नहीं, मेरी मज़ार पे,
पर एहसान कर गए वो, मुझे इनके बीच दफना के...
दिल को ये तस्सल्ली , हर रोज़ दे रहा हूँ,
सब पड़े है, एक नापसंद को पहलू में अपना के..
बाद मरने के ही सही, हमसायों के कद तो आ गया,
पछता रहे ,वो भी, शहरे-खामोशा के दस्तूर बना के....
सफ़ेद संगेमरमर से रोशन है कब्र उनकी,
पर खुश हूँ मै तो अपने पे गुलदार उगा के...
लाख वो निसार बार-बार हों अपने चिराग पे,
पर वो भी खौफज़दा हैं , स्याह मिट्टी में समां के....
ता-उम्र जब भी गुज़र गए वो सामने से मेरे,
ज़ख़्मी हुआ दिल उनकी हिकारत के वार पे....
अब वो भी हैं यहीं, हम भी हैं काबिज़ यहाँ पर,
अफ़सोस की सब लौट गए, एक कड़वी सच्चाई दफना के ...
इतरा रहे हो आज अपने रसूख पे, कल तुम भी आओगे,
कहाँ निकल सका है कोई, इस बस्ती से मुह चुरा के..
पर एहसान कर गए वो, मुझे इनके बीच दफना के...
दिल को ये तस्सल्ली , हर रोज़ दे रहा हूँ,
सब पड़े है, एक नापसंद को पहलू में अपना के..
बाद मरने के ही सही, हमसायों के कद तो आ गया,
पछता रहे ,वो भी, शहरे-खामोशा के दस्तूर बना के....
सफ़ेद संगेमरमर से रोशन है कब्र उनकी,
पर खुश हूँ मै तो अपने पे गुलदार उगा के...
लाख वो निसार बार-बार हों अपने चिराग पे,
पर वो भी खौफज़दा हैं , स्याह मिट्टी में समां के....
ता-उम्र जब भी गुज़र गए वो सामने से मेरे,
ज़ख़्मी हुआ दिल उनकी हिकारत के वार पे....
अब वो भी हैं यहीं, हम भी हैं काबिज़ यहाँ पर,
अफ़सोस की सब लौट गए, एक कड़वी सच्चाई दफना के ...
इतरा रहे हो आज अपने रसूख पे, कल तुम भी आओगे,
कहाँ निकल सका है कोई, इस बस्ती से मुह चुरा के..
ज़रूरतें जवां हैं ...
मेरी जुबां पे चुप है, है उसकी जुबां पे ना है ,
मै उससे जीत जाऊँ ,मेरी औकात ही कहाँ है....
वो सोचता है महंगा, मुझको खरीदना है ,
कैसे उसे बताऊँ , की ज़रूरतें जवां हैं ...
पर आदमियत मेरी, रोकती जुबां है,
कैसे दिखाऊं उसको की, पैबंद कहाँ-कहाँ है....
इस रात की सियाही में, सब हर्फ खो गयें है,
हाले-दिल सुनाऊं, वो मज़मून ही कहाँ हैं....
है रफ्ता-रफ्ता बेहद, ज़िन्दगी का ये तमाशा,
बीच में लूँ रुखसत, वो मिजाज़ गुम यहाँ हैं..
इंतज़ार फिर भी उसके इक नूर का ही है,
जिसमे हो साफ़ ये की मेरी किस्मत में क्या कहाँ है....
मै उससे जीत जाऊँ ,मेरी औकात ही कहाँ है....
वो सोचता है महंगा, मुझको खरीदना है ,
कैसे उसे बताऊँ , की ज़रूरतें जवां हैं ...
पर आदमियत मेरी, रोकती जुबां है,
कैसे दिखाऊं उसको की, पैबंद कहाँ-कहाँ है....
इस रात की सियाही में, सब हर्फ खो गयें है,
हाले-दिल सुनाऊं, वो मज़मून ही कहाँ हैं....
है रफ्ता-रफ्ता बेहद, ज़िन्दगी का ये तमाशा,
बीच में लूँ रुखसत, वो मिजाज़ गुम यहाँ हैं..
इंतज़ार फिर भी उसके इक नूर का ही है,
जिसमे हो साफ़ ये की मेरी किस्मत में क्या कहाँ है....
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