उसकी यादों से गुज़र
आया मैं
तमाम खुश्बुओं से नहा आया मैं।
वो अपने रस्ते जा चुका कब का
उन्हीं रास्तों से हाल पूछ आया मैं।
कुहुक उठती थी जिस
राग में कोयल
उन्हीं रागों को वादियों से चुरा लाया मैं।
इक कचहरी खुली थी फैसले
के लिए
वहां सारी तकरीरें खोखली कर आया मैं।
शहर जो इतराता था अपने अदब पर
उसी शहर से सारे अदब उड़ा लाया मैं।
बस वजीर से ही आस थी उन्हें खेल में
उसे अपने प्यादे से पीट आया मैं।
चौरासी खंभे थे जिनकी पहचान कभी
उन खंभों की हकीकत बयां कर आया मैं।
इतना सब करके भी जब मन ना भरा
पाबंदीशुदा सारे नारे लगा आया मैं।