मैं ही निशाना हो गया... |
चाहता था गुनगुनाना, सरगमो में खो गया.
है कई नश्तर ज़माने की गिरहबानो में, मगर,
हर किसी का एक मैं ही, क्यों निशाना हो गया.
एक परिंदा दिल था वो भी, उड़ चला गुमनाम सा,
राह के पत्थर से यारी, कर के उसपे सो गया.
मिन्नत बहुत की उस से लेकिन, वो भी कुछ मजबूर था,
और फिर कुछ यूँ हुआ, वो कारवां में खो गया.
थी बड़ी ये आरज़ू की मिल सकूं एक बार उस से,
पर जुबान कैसे ये कहती, "जो हो गया-सो हो गया".
अब न कोई राहतें, राह में मेरे बची,
जिस नूर से रोशन था मैं, बेसुध सा वो ही सो गया.
है येही उम्मीद बस की एक दिन वो ये कहेगा,
"मै तेरे जैसे से क्यूँ बेगाना सा हो गया" ?