मैं ही निशाना हो गया... |
चाहता था गुनगुनाना, सरगमो में खो गया.
है कई नश्तर ज़माने की गिरहबानो में, मगर,
हर किसी का एक मैं ही, क्यों निशाना हो गया.
एक परिंदा दिल था वो भी, उड़ चला गुमनाम सा,
राह के पत्थर से यारी, कर के उसपे सो गया.
मिन्नत बहुत की उस से लेकिन, वो भी कुछ मजबूर था,
और फिर कुछ यूँ हुआ, वो कारवां में खो गया.
थी बड़ी ये आरज़ू की मिल सकूं एक बार उस से,
पर जुबान कैसे ये कहती, "जो हो गया-सो हो गया".
अब न कोई राहतें, राह में मेरे बची,
जिस नूर से रोशन था मैं, बेसुध सा वो ही सो गया.
है येही उम्मीद बस की एक दिन वो ये कहेगा,
"मै तेरे जैसे से क्यूँ बेगाना सा हो गया" ?
4 टिप्पणियां:
मिन्नत बहुत की उस से लेकिन, वो भी कुछ मजबूर था,
और फिर कुछ यूँ हुआ, वो कारवां में खो गया.
थी बड़ी ये आरज़ू की मिल सकूं एक बार उस से,
पर जुबान कैसे ये कहती, "जो हो गया-सो हो गया".
bahut pyaaree lines... ek request , please 'blog archives' ka colour change kar de, thodi takleef hoti hai dekhne mein...
आप की रचना 17 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
pls. apna word verification hata le.
आपकी परवाज़ ए तखय्युल की दाद देता हूँ ...... अगर मीटर की कमी को दुरुस्त कर ले तो एक खूबसूरत ग़ज़ल हो जाएगी|
बहुत बहुत शुभकामनाएं|
ब्रह्माण्ड
बहुत बढ़िया.
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