बन के आंसू जो गिरा मैं नज़र से, ख़ाक हुआ,
और उनकी ज़रा सी आह पे लाखों का जिगर चाक हुआ....
हमने मस्जिद से जब आजान दी,
अल्लाह बेहद खुश, मगर काजी नाराज़ हुआ...
उसका था ये ही अफ़सोस की, मैं अनजान क्यों हुआ,
जो पाक था वो रिश्ता, पल में ही नापाक हुआ....
दिल में छुपाये दर्द हमने , मजबूरियों को इलज़ाम दिया,
एक की खातिर, कईयों का, जज़्बात यूँ ही हलाक हुआ...
वो सनम था मुझे जान से प्यारा बेहद, मगर जिस्मों पे हावी,
एक दिमाग भी था, तो कुछ इस तरह तलाक़ हुआ...
जब एक खोटा सिक्का, चल गया बाज़ार में,
तो मचल उठा दिल, बेईमानी में बेबाक हुआ...
लिख लिख के उसको ख़त तमाम रातें खराब की,
मिट गया गम मगर, इश्क बे-नकाब हुआ....