दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
(चेतावनी- इस ब्लॉग के सर्वाधिकार (कॉपीराइट) ब्लॉग के संचालनकर्ता और लेखक वैभव आनन्द के पास सुरक्षित है।)

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

माँ ऐसी ही होती है…

गर्मियों में जब शिद्दत की धूप 
जिस्म को झुलसाती है 
माँ बहुत याद आती है
घर लौट कर जब आता हूँ
थका-हारा
माँ सर पे हाथ फेरती है
और चुपचाप
'आम का पना' बनाती है।
माँ ऐसी ही होती है…

नफरतों का सिलसिला

"उनकी नफरत की सलीबों पर 
कई ईसा चढ़े, 
आज भी कायम है 
नफरतों का सिलसिला, 
जो भी कुछ आगे बढ़ा, 
वो ही सूली पर चढ़ा,
और भी ईसा यहाँ है,
पर सलीबें भी यहाँ,
कोशिश करें की,
उनको ये समझा सकें,
ईसाओं को मार
कुछ नहीं कर पाओगे,
एक ईसा मर गया,
पर उसके पीछे चल रहे,
काफिले में दब जाओगे.....
और तुम्हारी पीढियां,
बाइबिल पढ़ेंगी,
कुर्रान और गीता सुनेगी,
कोसेगीं तुम्हारी जात पे,
काश! नादानी न की होती हमारे बुजुर्गों ने,
तो हम आज शर्मिंदा न होते,
अपने पैदाइश से यहाँ...."

'नमक' भी जहां जख्मों की 'दवा' कहलाता है..!

खामोशी के शोर से जब भी डर जाता है,
अंदर का इंसान, भीड़ में जाकर खो जाता है..
अरमान दिलों में बरसों जला करते है,
इंसान तो इक पल में खाक हो जाता है.....!
क़ब्र की मिट्टी हाथ में लिए सोचता हूँ...
लोग मरते हैं तो ग़ुरूर कहाँ जाता है...?
है उनके शहर का ये 'कायदा' बड़ा अजीब,
'नमक' भी जहां जख्मों की 'दवा' कहलाता है..!

पैमाने बदल देते....

पलकों कि छाँव में गुज़रती जो ज़िन्दगी,
तो पलकों पे ज़िन्दगी के फ़साने लिख देते,
रहम-ओ-करम पे आपके ज़िंदा हैं, अब तलक,
वर्ना यूँ आपको हम, सताने नहीं देते,
लाचारगी का हम पर, ये दौर जो ना होता
हम आपको यूँ अश्क़, छुपाने नहीं देते,
खुदगर्ज़ आप जैसे हम, थोड़े भी अगर होते
तो यूँ लोग हमको रोज़, ताने नहीं देते,
क़िस्मत पे ज़ोर अपना थोड़ा सा जो गर चलता
हम उन सुनहरे पल को यूँ ही जाने नहीं देते,
मोहलत जो देती ज़िन्दगी इक पल ज़रा सा और
हम ज़िन्दगी जीने के, पैमाने बदल देते....

दिल क्यूं दीवाना हुआ?

ये तो सोचो कि दिल क्यूं दीवाना हुआ
एक जज्बात पे क्यू फसाना हुआ।


आ गये प्यार लेके वो चौखट पे मेरी,
जख्म जो भी था वो सब पुराना हुआ।

मौत के वक्त वो सामने थे खड़े,
मौत पे फिर तो मातम शहाना हुआ।

पत्थरों पे तो गुलशन हैं सजते नहीं,
मिट्टी थी, खेल जिसमें, तू सयाना हुआ।