दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
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बुधवार, 10 अगस्त 2016

रोज जियो, रोज मरो..

आप रहते हैं झोपड़े में
तो एक बात
क्यों नहीं आती
आपके 'खोपड़े' में।
महलों के
सपने देखना बंद क्यों नहीं करते।
आज भी सामंत हैं
जो आपको
अपनी 'रियाया' समझते हैं
और आप हैं कि खुद को
'राजा' समझते हैं...
बंद करो ये दिवास्वप्न
मध्यमवर्गीय लोगों।
तुम प्राचीन काल सेअब तक
महज एक 'यंत्र' हो...
जिसे कोई और चलाता है।
राज उसका है,
समाज उसका है
तुम तो
वो दंतविहीन सांप हो जो
आधुनिक सामंतों की
बीन पर नाचता भर है...
और गुमान
ये पालता है
कि उसकी 'फुफकार' भर से
सामंत डर जाएंगे
अरे, छोड़ो...
रोज जियो, रोज मरो..

चार कंधो पे जाती है....

हमे तपता हुआ पाकर, 
आग फिर भी तपाती है...
किसी एक की जलन खातिर, 
वो सब पे नश्तर चलती है..
वो ही है "ब्रम्ह" एक,
गुमान उसको, चिढ़ाती है,
हिकारत से
सभी को देखती
और थूक जाती है...मगर
सच्चे लोगो के बीच उसकी
जहालत खुलती जाती है,
तेरा क्या वास्ता
दुनिया के लोगो से...
मगर ये याद रख
एक लाश भी
चार कंधो पे जाती है....