दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
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शनिवार, 18 अप्रैल 2015

एक ज़िंदा लाश हूं मैं...

एक ज़िंदा लाश हूं मैं

शून्य सारे भाव मेरे,
खत्म सारे दांव मेरे,
जो दिलासा दे रहा था
वो भी रूठा साथ मेरे

मर चुका विश्वास हूं मैं

लोग कितना भी कहें
हौसला रख तू अभी
मेरे सारे हौसलों पर
भारी पड़े हैं घाव मेरे

नासूर ढोता मांस हूं मैं

रोज़ जंग ख्वाबों के संग
मैं नींद से डरने लगा
सुबह की चहलो-पहल
को सोच के मरने लगा

हर सिम्त रुकती सांस हूं मैं

कांपता हूं याद कर
जो भी बीता साथ मेरे
अब मैं रोऊं किसके कांधे
सब ही रूठे साथ मेरे

दिल में चुभी एक फांस हूं मैं

दफना दिया एक फूल मैंने
जला दिया एक पेड़ भी
अब ना फूलों की हंसी
ना छाया बची है पेड़ की

प्यार की एक प्यास हूं मैं
एक ज़िंदा लाश हूं मैं...

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

ग्यारह महीने... (बेटा-मां और पिताजी)

अपने घर में इक कील भी लगाओ तो,    
 वो अपनी सी लगती है,
 ऐसा मेरी माँ कहती थी,
 अक्सर मेरे पिताजी से..
 सरकारी नौकरी में,
 इमानदारी की मिसाल बन,
 अपने घर का सपना पालना?
 पिताजी उस पहाड़ की ऊँचाई से वाकिफ थे,
 पर माँ तो माँ है,
 उसके लिए चौतरफा दबाव है,
 ...कुछ बेच के,
 इमानदारी को निचोड़ के,
 पुरखों के सपने ख़ाक कर,
 एक सरकारी योजनाओं का,
 घर ले ही लिया,
 मगर जब रहने की बारी आई
 तो तबादला और बिमारी लायी,
 फिर उस "अपनेघर में ताला लगा,
 कुछ बर्तन और कुछ बिस्तर ले,
 एक नए शहर में...
 सब कुछ "अपनेघर में,
 ताले में बंद था,
 यहाँहर महीने मकान-मालिक.
 का "पठानकी तरह आना.
 माँ का आश्वासन की कल आना
 हर ग्यारह महीने पर,
 मकान बदलने की,,
 प्रसव-वेदना सा झेलना...
 एक तनख्वाह,
 ज़मीन पे सोना,
 पिताजी और माँ का कहना,
 'क्या करना है यहाँ कुछ सामान खरीद कर,
 कोशिश करिए,
 वापस अपने शहर तबादला ले लीजिये',
 बाट जोहते तबादले की,
 साल दर साल निकलते गए,
 माता और पिताजी,
 बुढ़ापे की और बढ़ते गए,
 मगर अपने घर की आस में,
 हम किसी और घर में,
 अपने अपने कोने की हिफाज़त करते रहे,
 यही सोचकिराए के घर को
 नए शहर को,
 और उस नए शहर के लोगों को
  अपना सके की,
 "ये अपना नहीं है",
 एक दिन हम "अपनेघर में जायेंगे,
 आखिर किराये के मकान में ही,
 पिताजी रिटायर हो गए,
 दिल में अनेको दर्द लिए,
 दिल के परेशन की डगर चल दिए,
 फिर 'अपनेघर जाने के इंतज़ार में,
कई साल कौवो को सुन सुन के बिताये,
 बात बेटियों की शादी की आई,
 "अपनेबेगाने हुए,
 तो फिर "अपनेघर की याद आई.
 इस बारउसका दाम लगा,
 बिक गया,
 बेटी की शादी हुई,
 लेकिन माँ का सपना,
 अधूरा रहा ,
 कुछ सालऔर भटक के,
 हर ग्यारह महीने में
 जड़ से कट कट के...
 पिताजी इस दुनिया से उठ गए,
 किराए के मकान से ही उनका
 जनाज़ा निकला,
 माँअपने भगवान् की मूर्तियों,
 के लिए हर नए किराये के मकान में,
 जगह ढूंढ लेती थी...
 जगह भगवान की..
 जगह मां के छुप-छुप के रोने की..
 माँ ग्यारह महीने के खौफ
 और पिताजी की याद में घुलती रहीं,
 मोतियाबिंद भरी आंखों में
 आंसुओं को समोती रहीं
 उम्मीद में रहीं कि
 शायद
 तीन-तीन बेटों की मां के
 सारे दुख दूर हो जाएं
 वो फिर से - सीधी कमर करके चलें
 अपने खिलाए गुलशन को
 धुंधलाई नहींसाफ आंखों से देख सकें
 मगर गम से लहुलुहान दिल
 कब तक उन्हें मोहलत देता...
 किराए के घर की दीवारों के सिवा,
 उनके आंसुओं का कोई और,
 गवाह नहीं बचा था...
 एक छोटा सा तुलसी का पौधा
 उन्हें खुशी देता था..
 वो भी एक दिन अचानक
 मुरझा गया..
 मां भी उसी दिन से
 मुरझाने लगीं..
 सबसे छोटा बेटा ग्यारह महीने के खौफ्फ़,
 में ही जीता रहा..
 हर सिम्त मां की बीमारियों को
 भरसक चुनौती देता रहा..
 ग्यारहदसनौआठ….
 वो उलटी गिनती,
 जो माँ की चिंता का सबब बनी रही,
 मां भी इसी उल्टी गिनती के खौफऔर
 हजारों ग़मों को सीने में समेटे
 किस्मत के दांव पर हार गईं
 इस दुनिया को अलविदा कह गईं
 मां से सांसें रूठ गईं..
 बेटे से खुशियां रूठ गईं
 अबबस बेटा है अकेला
और उसके माथे की
बढती चौड़ाई है..
 बेटे के झड़ते हुए बालों के कारवां से इतर
 ये उल्टी गिनती
 किसी से नहीं डरती है,
 वो तो बस घटती जा रही है,
 ग्यारहदसनौआठ…..