अपने घर में इक कील भी लगाओ तो,
वो अपनी सी लगती है,
ऐसा मेरी माँ कहती थी,
अक्सर मेरे पिताजी से..
सरकारी नौकरी में,
इमानदारी की मिसाल बन,
अपने घर का सपना पालना?
पिताजी उस पहाड़ की ऊँचाई से वाकिफ थे,
पर माँ तो माँ है,
उसके लिए चौतरफा दबाव है,
...कुछ बेच के,
इमानदारी को निचोड़ के,
पुरखों के सपने ख़ाक कर,
एक सरकारी योजनाओं का,
घर ले ही लिया,
मगर जब रहने की बारी आई
तो तबादला और बिमारी लायी,
फिर उस "अपने" घर में ताला लगा,
कुछ बर्तन और कुछ बिस्तर ले,
एक नए शहर में...
सब कुछ "अपने" घर में,
ताले में बंद था,
यहाँ, हर महीने मकान-मालिक.
का "पठान" की तरह आना.
माँ का आश्वासन की कल आना
हर ग्यारह महीने पर,
मकान बदलने की,,
प्रसव-वेदना सा झेलना...
एक तनख्वाह,
ज़मीन पे सोना,
पिताजी और माँ का कहना,
'क्या करना है यहाँ कुछ सामान खरीद कर,
कोशिश करिए,
वापस अपने शहर तबादला ले लीजिये',
बाट जोहते तबादले की,
साल दर साल निकलते गए,
माता और पिताजी,
बुढ़ापे की और बढ़ते गए,
मगर अपने घर की आस में,
हम किसी और घर में,
अपने अपने कोने की हिफाज़त करते रहे,
यही सोच, किराए के घर को
नए शहर को,
और उस नए शहर के लोगों को
न अपना सके की,
"ये अपना नहीं है",
एक दिन हम "अपने" घर में जायेंगे,
आखिर किराये के मकान में ही,
पिताजी रिटायर हो गए,
दिल में अनेको दर्द लिए,
दिल के ऑपरेशन की डगर चल दिए,
फिर 'अपने" घर जाने के इंतज़ार में,
कई साल कौवो को सुन सुन के बिताये,
बात बेटियों की शादी की आई,
"अपने" बेगाने हुए,
तो फिर "अपने" घर की याद आई.
इस बार, उसका दाम लगा,
बिक गया,
बेटी की शादी हुई,
लेकिन माँ का सपना,
अधूरा रहा ,
कुछ साल, और भटक के,
हर ग्यारह महीने में
जड़ से कट कट के...
पिताजी इस दुनिया से उठ गए,
किराए के मकान से ही उनका
जनाज़ा निकला,
माँ, अपने भगवान् की मूर्तियों,
के लिए हर नए किराये के मकान में,
जगह ढूंढ लेती थी...
जगह भगवान की..
जगह मां के छुप-छुप के रोने की..
माँ ग्यारह महीने के खौफ
और पिताजी की याद में घुलती रहीं,
मोतियाबिंद भरी आंखों में
आंसुओं को समोती रहीं
उम्मीद में रहीं कि
शायद
तीन-तीन बेटों की मां के
सारे दुख दूर हो जाएं
वो फिर से - सीधी कमर करके चलें
अपने खिलाए गुलशन को
धुंधलाई नहीं, साफ आंखों से देख सकें
मगर गम से लहुलुहान दिल
कब तक उन्हें मोहलत देता...
किराए के घर की दीवारों के सिवा,
उनके आंसुओं का कोई और,
गवाह नहीं बचा था...
एक छोटा सा तुलसी का पौधा
उन्हें खुशी देता था..
वो भी एक दिन अचानक
मुरझा गया..
मां भी उसी दिन से
मुरझाने लगीं..
सबसे छोटा बेटा ग्यारह महीने के खौफ्फ़,
में ही जीता रहा..
हर सिम्त मां की बीमारियों को
भरसक चुनौती देता रहा..
ग्यारह, दस, नौ, आठ….
वो उलटी गिनती,
जो माँ की चिंता का सबब बनी रही,
मां भी इसी उल्टी गिनती के खौफ, और
हजारों ग़मों को सीने में समेटे
किस्मत के दांव पर हार गईं
इस दुनिया को अलविदा कह गईं
मां से सांसें रूठ गईं..
बेटे से खुशियां रूठ गईं
अब, बस बेटा है अकेला
और उसके माथे की
बढती चौड़ाई है..
बेटे के झड़ते हुए बालों के कारवां से इतर
ये उल्टी गिनती
किसी से नहीं डरती है,
वो तो बस घटती जा रही है,
ग्यारह, दस, नौ, आठ…..
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