तुम्हारी सोच
एक दिनमैं बदल दूंगा।
तुम्हारे दिमाग में
मैं अपनी सोच के
'पारे' भर दूंगा।बिना नारों
बिना वादों के।
बस थोड़ी सी
'चिंगारी' उठने का
इंतज़ार करो।
उस से मैं
'आग' जलाऊंगा
तब पका दूंगा...
'घालमेल की खिचड़ी'
और फिर तुम
जनम-जनम से भूखे
किसी 'कुत्ते' की माफिक
जीभ लपलपाते आओगे
बन जाओगे मेरे 'चारण'
और फिर
मेरे ही 'सुर' में
तुम भी गाओगे।अगली 'खिचड़ी' की आस में...
चाटने लगोगे मेरे तलवे।
उस दिन मैं...
हां! ठीक उसी दिन से
दुनिया फतह करने कासपना देखना
शुरु कर दूंगा।