शनिवार, 17 अक्तूबर 2009
क्या कहना....
क्या कहना है, उफ़! मुस्कानों का,
जो खुल के जज़्बात दिखाती हैं...
पर अक्सर ये दर्द के ,
माने बन होठ पे आती है...
क्या राज़ छुपा मुस्कानों में ,
ये बतला दो मुझको भी,
थोडा भी दिल के पास हूँ तो ,
अपना लो झट से मुझको भी ....
क्या कहना....
क्या कहना है, उफ़! मुस्कानों का,
जो खुल के जज़्बात दिखाती हैं...
पर अक्सर ये दर्द के ,
माने बन होठ पे आती है...
क्या राज़ छुपा मुस्कानों में ,
ये बतला दो मुझको भी,
थोडा भी दिल के पास हूँ तो ,
अपना लो झट से मुझको भी ....
गुमसुम सी ज़िन्दगी....
गुमसुम सी ज़िन्दगी, है तल्ख़ ये ज़माना,
उलझा हुआ सा अपनी तकदीर का फ़साना...{1}
हर कोई चल रहा है, हर कोई है मुसाफिर,
किस से करूँ गुजारिश, अब छोड़ के न जाना....{२}
अब तंग है नज़रिया, ना-पाक हैं इरादे,
मुमकिन नहीं चमन में, अपनी जगह बनाना...{३}
नाराज़ हो के उनसे , "वैभव" कहाँ पे जाये,
मुश्किल है आइनों से अपनी नज़र चुराना ....{4}
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