दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
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बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

ज़रूरतें जवां हैं ...

मेरी जुबां पे चुप है, है उसकी जुबां पे ना है ,
मै उससे जीत जाऊँ ,मेरी औकात ही कहाँ है....

वो सोचता है महंगा, मुझको खरीदना है ,
कैसे उसे बताऊँ , की ज़रूरतें जवां हैं ...

पर आदमियत मेरी, रोकती जुबां है,
कैसे दिखाऊं उसको की, पैबंद कहाँ-कहाँ है....

इस रात की सियाही में, सब हर्फ खो गयें है,
हाले-दिल सुनाऊं, वो मज़मून ही कहाँ हैं....

है रफ्ता-रफ्ता बेहद, ज़िन्दगी का ये तमाशा,
बीच में लूँ रुखसत, वो मिजाज़ गुम यहाँ हैं..

इंतज़ार फिर भी उसके इक नूर का ही है,
जिसमे हो साफ़ ये की मेरी किस्मत में क्या कहाँ है....

1 टिप्पणी:

vidhi ने कहा…

इंतज़ार फिर भी उसके इक नूर का ही है,
जिसमे हो साफ़ ये की मेरी किस्मत में क्या कहाँ है....
ye line hume bahut pasand aaye.........