दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
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बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

इस बस्ती से मुह चुरा के..

माना की इक चिराग भी मयस्सर नहीं, मेरी मज़ार पे,
पर एहसान कर गए वो, मुझे इनके बीच दफना के...

दिल को ये तस्सल्ली , हर रोज़ दे रहा हूँ,
सब पड़े है, एक नापसंद को पहलू में अपना के..

बाद मरने के ही सही, हमसायों के कद तो आ गया,
पछता रहे ,वो भी, शहरे-खामोशा के दस्तूर बना के....

सफ़ेद संगेमरमर से रोशन है कब्र उनकी,
पर खुश हूँ मै तो अपने पे गुलदार उगा के...

लाख वो निसार बार-बार हों अपने चिराग पे,
पर वो भी खौफज़दा हैं , स्याह मिट्टी में समां के....

ता-उम्र जब भी गुज़र गए वो सामने से मेरे,
ज़ख़्मी हुआ दिल उनकी हिकारत के वार पे....

अब वो भी हैं यहीं, हम भी हैं काबिज़ यहाँ पर,
अफ़सोस की सब लौट गए, एक कड़वी सच्चाई दफना के ...

इतरा रहे हो आज अपने रसूख पे, कल तुम भी आओगे,
कहाँ निकल सका है कोई, इस बस्ती से मुह चुरा के..

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