ये धुआं -धुआं सी उलझने , और रास्तों पे धुंध सी ,
इतराई सी बलखाई सी हज़ार अदाओं से रिझाती,
पास से सरकती ज़िन्दगी सी ..
न कोई ओर -छोर इसका ,
न कोई पैमाइश ही इसकी,
ये सब्जबाग सपनो से,
ये हवाएं नशीली तीर सी,
ये नज़रें तंज और तेज़ सी...
ये जो गुज़र रही छुटते शहरों के रास्तों सी ,
ये उसी दयार पे लौटती,
उन्ही पहचानी शक्लों सी, ये उदास शाम सी घिरती,
ये टिमटिमाती दूर की रौशनी सी ...
ये हर घर की रात है ,
सब के सोने की जुगत सी ..
बड़ा दूर है ठिकाना मेरा,
इन अपनों में तो नहीं ही है,
तो ले चल कहीं दूर ऐ मेरे हाथों की आड़ी-तिरछी लाइने,
अजनबी शहर या गाँव,
जहाँ कोई अपना न हो,
जहाँ कोई पहचाने मंज़र न हो ....
जहाँ मुझे सबको फिर से जानने का एक और,
मौका मिले, एक और ज़िन्दगी,
एक और झूठी ही सही उम्मीद,
की शायद आज शाम के बाद रात न आये...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें