दिल की नज़र से....

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सोमवार, 22 अप्रैल 2013

टर्राने का मौसम...!



कहतें हैं - बरसात में मेढक टर्राते हैं

अपने अपने तालाब के पानी पर इतराते हैं

 मगर मेढकों के टर्राने का भी एक मौसम होता है

 मगर यहाँ तो बेमौसम भी

 टर्राहट है

 अपने अपने तालाब पर झूठी

 इतराहट है

 बेचने को आतुर हैं कुछ लोग

 ये टर्राहट उसी की छटपटाहट है
कुछ बेच लेंगे

कुछ नहीं बेच पाएंगे
बचा कर सहेज कर रख लेंगे

अगले मौके के इंतज़ार में
मौका मिलने पर थोडा मसाला मिला फिर बेचेंगे

ये खरीद-फरोख्त यूँ ही चलती रहेगी
सबकी दाल अपने अपने हिसाब से गलती रहेगी

हम अपनी संस्कृति के टूटे खँडहर पर
नयी कालोनियां बनायेंगे

अपने निपट बेहूदे फ्लैट में बैठ

मेढक की तरह फिर इतरायेंगे

और हां

ख़ुशी में समवेत टर्राएंगे...