दिल की नज़र से....

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रविवार, 14 जून 2015

मिस टनकपुर,ज्यामिति का एक सवाल उर्फ़ विनोद कापड़ी की 'मस्तराम-गाथा'

प्रश्न - सिद्ध कीजिए कि विनोद कापड़ी की फिल्म "मिस टनकपुर हाज़िर हों" की रिलीज़ के बाद फिल्मों का नया इतिहास लिखा जाएगा, कापड़ी के टीवी में फैलाये कचरे की तरह ही एक नया ट्रेंड मार्केट में गोते लगाएगा और 'खाप' के त्रिभुज की 2  भुजाएं (शाहरुख़जैसी) बराबर फैलेंगी और 1 भुजा के शीर्ष पर (माथे पर) अपराध बोध बल खाएगा, कोण किसी भी दिशा में जाएगा.. पर अक्ष (खाप) 360 डिग्री तक घूम जाएगायानी खाप को 'माता रानी' का पाप खाएगा... कापड़ी न्यूज़ चैनल की तरह ही फिल्मों में छिछोरगर्दी दिखाएगा? 

हल - (उत्तर) माना कि - विनोद कापड़ी की फिल्म रिलीज़ हो गई सब तैयार - कभी इंडिया टीवी में 'पतुरिया' नचवा के टीआरपी दिलाने वाले कापड़ी अब सुभाष घई जैसी टुच्चई करेंगे, चोली के पीछे माधुरी को नचवाने जैसा कुछ काम. - ढाक के तीन पात

मदारी होंगा - 'विनोद कापड़ी'...(माइन-प्लस पुराने जैसा)

बाकी फिल्म के कलाकार होंगे 'जमूरे'.. (हमेशा माइनस)

(झूठे तिलस्म की रचना - (यानी कथा)  में कैसा होगा संवाद?)

कापड़ी - जमूरे.. 'भैंस की त्वचा काली' क्यों पड़ी..?

एक कलाकार - विनोद जी पता नहीं..!

कापड़ी- अबे, भूतनी के...'काली पड़ी' क्योंकी गया है, 'का-पड़ी'.. 'भैंस की काली त्वचा' दिलाएगी नाम और शोहरत..

दूसरा कलाकार - विनोद जी लेकिन ये फिल्म..

कापड़ी- तेरी फिल्म की मां की...(??) (ओह सॉरी भूल गया ये तो मेरी ही फिल्म है)

तीसरा कलाकार - फिर सर  भैंस को गोरा दिखाया जाए...

कापड़ी- अबे देख भैस के गले में 'नींबूं-मिर्च' लटका दे.. कई दिनों तक रहेगा संस्पेंस का मायाजाल.. चौथे दिन फिल्म का 'चौथा' (प्रीमियर) होगा..तो क्रिटिक्स की तारीफों का  विस्फोट होगा.. 

(परिणाम)कापड़ी खुश+ खाप  खुश+ चमचे भी खुश..(-)  

=  फिल्म नाम की विधा का सामूहिक बलात्कार देख हर कोई फोड़ेगा माथा..

तो भाइयों..अब आगे-आगे देखिए विनोद कापड़ी की 'मस्तराम-गाथा' - 

जिसे सुनाएगा फिल्म का शिकार हुआ हर अभागा...

इति सिद्धम (कार्य दुर्गम)

(BBMK डेस्क)

बुधवार, 3 जून 2015

मैगी के बहाने 2 मिनट की बात


बड़े-बुज़ुर्ग कह गए हैं कि जल्दी का काम शैतान का,  2 मिनट में मैगी बना के खाना भी उसी शैतानी भोजन का हिस्सा ही तो है। अचरच होता है इसको प्रचारित करने वाले ब्रांड अंबेसडर्स पर, जैसे अमिताभ बच्चन – हर इंटरव्यू और हर मजलिस में अपने बाबूजी को याद करने वाले, और उनकी कविताएं सुना कर तालियां बटोरने वाले अमिताभ को उनके बाबूजी ने ये कहावत नहीं सिखाई कि – जल्दी का काम शैतान का, अभी इस बारे में अमिताभ से पूछे तो वो ऐसे साधू बन कर बोलेंगे जैसे कि वो सब मोह-माया से ऊपर उठ चुके हैं – कहेंगे – हम तो कलाकार हैं आप आएंगे और कहेंगे कि स्क्रिप्ट है आपको एक्टिंग करनी हैं हम कैमरे के सामने जा कर डॉयलॉग बोल देंगे..सोचता कोई और है लिखता कोई और है हम तो बस पात्र हैं, जिन्हें दूसरे संचालित करते हैं। ऐसे जवाब सुनकर सवाल पूछने वाला भी लज्जित हो जाता है और अमिताभ, सुपर स्टार बने रहते हैं। ये वही अमिताभ हैं जो एक समय अपनी असफल होती फिल्मों से इतने उत्तेजित हो गए थे कि उस दौर के सबसे अश्लील गीत (जुम्मा-चुम्मा) को अपनी फिल्म हम में शामिल किया और उस पर भौंडा नाच भी दिखाया। हालत ये हो गई कि विविध भारती”(रेडियो) और दूरदर्शन को उस गीत को घोर अश्लील करार देते हुए प्रसारण पर बैन लगाना पड़ा। ना तो ये गीत रेडियो पर बजता था और ना ही चित्रहार वगैरा में दिखाया जाता था। खैर फिल्म हिट(?) हो गई और फिल्मी गीतों में अश्लीलता का दौर शुरु हो गया।
अब बात दूसरी ब्रांड अंबेसडर माधुरी दीक्षित की – वैसे अश्लीलता का दौर शुरु करने में अगर किसी दो शख्स का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है तो वो पहले तो सुभाष घई हैं और दूसरी माधुरी दीक्षित – नब्बे के दशक के आखिरी तक सुभाष घई का फिल्मी फार्मूला पिटने लगा था, उन्हें अपने शोमैन की पदवी सरकती नज़र आने लगी थी, तो उन्होंने भी खलनायक में चोली के पीछे पर माधुरी को नचा कर छप्पर फाड़ सफलता पाने की मंशा जताई सुभाष घई सफल हुए (ये अलग बात है कि खलनायक के बाद से उनकी हर फिल्म सुपर फ्लॉप रही) और करियर के आखिरी पड़ाव में वो शोमैन जैसी साफ सुथरी छवि के बजाए अश्लीलता के शोमैन बन गए, औऱ माधुरी दीक्षित अश्लील गीतों पर डांस की महारानी बन गईं और अगली फिल्म बेटा में और ज्यादा अश्लीलता दिखाते हुए धक-धक पर डांस किया। चोली के पीछे क्या है गीत को भी रेडियो और टीवी पर बैन कर दिया गया था, उस दौर में बड़े-बुज़ुर्ग ये गीत सुन कर बगले झांकने लगते थे। इस गीत के बाद तो जैसे फिल्म निर्माताओं को फिल्म हिट कराने का एक फॉर्मूला हाथ लग गया – उदाहरण – चढ़ गया ऊपर रे, अटरिया पे लोटन कबूतर, सेक्सी-सेक्सी लोग बोलें, मेरी पैंट भी सेक्सी, खेत गए बाबा, दुआरे पे मां, तू चीज़ बड़ी है मस्त वगैरा-वगैरा गीत।

नेने से शादी करके माधुरी गायब हो गईं थीं मगर पैसे की खनक उन्हें दोबारा मुंबई खींच लाई और फिल्मों के साथ-साथ वो मैगी जैसे एड करने लगीं, मुझे मालूम है उनका भी मैगी के एड करने पर वही तर्क होगा जो बाबूजी के खानदानी बेटे (अमिताभ) का होगा।    

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

एक ज़िंदा लाश हूं मैं...

एक ज़िंदा लाश हूं मैं

शून्य सारे भाव मेरे,
खत्म सारे दांव मेरे,
जो दिलासा दे रहा था
वो भी रूठा साथ मेरे

मर चुका विश्वास हूं मैं

लोग कितना भी कहें
हौसला रख तू अभी
मेरे सारे हौसलों पर
भारी पड़े हैं घाव मेरे

नासूर ढोता मांस हूं मैं

रोज़ जंग ख्वाबों के संग
मैं नींद से डरने लगा
सुबह की चहलो-पहल
को सोच के मरने लगा

हर सिम्त रुकती सांस हूं मैं

कांपता हूं याद कर
जो भी बीता साथ मेरे
अब मैं रोऊं किसके कांधे
सब ही रूठे साथ मेरे

दिल में चुभी एक फांस हूं मैं

दफना दिया एक फूल मैंने
जला दिया एक पेड़ भी
अब ना फूलों की हंसी
ना छाया बची है पेड़ की

प्यार की एक प्यास हूं मैं
एक ज़िंदा लाश हूं मैं...

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

ग्यारह महीने... (बेटा-मां और पिताजी)

अपने घर में इक कील भी लगाओ तो,    
 वो अपनी सी लगती है,
 ऐसा मेरी माँ कहती थी,
 अक्सर मेरे पिताजी से..
 सरकारी नौकरी में,
 इमानदारी की मिसाल बन,
 अपने घर का सपना पालना?
 पिताजी उस पहाड़ की ऊँचाई से वाकिफ थे,
 पर माँ तो माँ है,
 उसके लिए चौतरफा दबाव है,
 ...कुछ बेच के,
 इमानदारी को निचोड़ के,
 पुरखों के सपने ख़ाक कर,
 एक सरकारी योजनाओं का,
 घर ले ही लिया,
 मगर जब रहने की बारी आई
 तो तबादला और बिमारी लायी,
 फिर उस "अपनेघर में ताला लगा,
 कुछ बर्तन और कुछ बिस्तर ले,
 एक नए शहर में...
 सब कुछ "अपनेघर में,
 ताले में बंद था,
 यहाँहर महीने मकान-मालिक.
 का "पठानकी तरह आना.
 माँ का आश्वासन की कल आना
 हर ग्यारह महीने पर,
 मकान बदलने की,,
 प्रसव-वेदना सा झेलना...
 एक तनख्वाह,
 ज़मीन पे सोना,
 पिताजी और माँ का कहना,
 'क्या करना है यहाँ कुछ सामान खरीद कर,
 कोशिश करिए,
 वापस अपने शहर तबादला ले लीजिये',
 बाट जोहते तबादले की,
 साल दर साल निकलते गए,
 माता और पिताजी,
 बुढ़ापे की और बढ़ते गए,
 मगर अपने घर की आस में,
 हम किसी और घर में,
 अपने अपने कोने की हिफाज़त करते रहे,
 यही सोचकिराए के घर को
 नए शहर को,
 और उस नए शहर के लोगों को
  अपना सके की,
 "ये अपना नहीं है",
 एक दिन हम "अपनेघर में जायेंगे,
 आखिर किराये के मकान में ही,
 पिताजी रिटायर हो गए,
 दिल में अनेको दर्द लिए,
 दिल के परेशन की डगर चल दिए,
 फिर 'अपनेघर जाने के इंतज़ार में,
कई साल कौवो को सुन सुन के बिताये,
 बात बेटियों की शादी की आई,
 "अपनेबेगाने हुए,
 तो फिर "अपनेघर की याद आई.
 इस बारउसका दाम लगा,
 बिक गया,
 बेटी की शादी हुई,
 लेकिन माँ का सपना,
 अधूरा रहा ,
 कुछ सालऔर भटक के,
 हर ग्यारह महीने में
 जड़ से कट कट के...
 पिताजी इस दुनिया से उठ गए,
 किराए के मकान से ही उनका
 जनाज़ा निकला,
 माँअपने भगवान् की मूर्तियों,
 के लिए हर नए किराये के मकान में,
 जगह ढूंढ लेती थी...
 जगह भगवान की..
 जगह मां के छुप-छुप के रोने की..
 माँ ग्यारह महीने के खौफ
 और पिताजी की याद में घुलती रहीं,
 मोतियाबिंद भरी आंखों में
 आंसुओं को समोती रहीं
 उम्मीद में रहीं कि
 शायद
 तीन-तीन बेटों की मां के
 सारे दुख दूर हो जाएं
 वो फिर से - सीधी कमर करके चलें
 अपने खिलाए गुलशन को
 धुंधलाई नहींसाफ आंखों से देख सकें
 मगर गम से लहुलुहान दिल
 कब तक उन्हें मोहलत देता...
 किराए के घर की दीवारों के सिवा,
 उनके आंसुओं का कोई और,
 गवाह नहीं बचा था...
 एक छोटा सा तुलसी का पौधा
 उन्हें खुशी देता था..
 वो भी एक दिन अचानक
 मुरझा गया..
 मां भी उसी दिन से
 मुरझाने लगीं..
 सबसे छोटा बेटा ग्यारह महीने के खौफ्फ़,
 में ही जीता रहा..
 हर सिम्त मां की बीमारियों को
 भरसक चुनौती देता रहा..
 ग्यारहदसनौआठ….
 वो उलटी गिनती,
 जो माँ की चिंता का सबब बनी रही,
 मां भी इसी उल्टी गिनती के खौफऔर
 हजारों ग़मों को सीने में समेटे
 किस्मत के दांव पर हार गईं
 इस दुनिया को अलविदा कह गईं
 मां से सांसें रूठ गईं..
 बेटे से खुशियां रूठ गईं
 अबबस बेटा है अकेला
और उसके माथे की
बढती चौड़ाई है..
 बेटे के झड़ते हुए बालों के कारवां से इतर
 ये उल्टी गिनती
 किसी से नहीं डरती है,
 वो तो बस घटती जा रही है,
 ग्यारहदसनौआठ…..