दिल की नज़र से....

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गुरुवार, 18 अगस्त 2016

मेढकों को 'मुंह' कौन लगाता है

वो, हर उस खेल में,
मुझसे जीत जाता है
जहां उसे 'खुद' को उठाना,
मुझे गिराना आता है।

हूं परेशान,                
मैं अपनी हालत पर
जिसपे दुनिया को हंसना,      
मुझे रोना आता है। 

वो मेरा 'शागिर्द' था,              
अब 'सीख' गया है
तमाम चालें,   
जिसे सोच 
'जिस्म' कांप जाता है।

उसकी हर मात का                      
क्या काट लाऊं,
ये बुरा ख्वाब मुझे रोज़                 
जगा जाता है।

नामालूम कैसी सोच है                 
आज लोगो में
इक सिरा थामता हूं,             
दूजा छूट जाता है। 

पीछे छूट चुके                          
तमाम लम्हों का,
आईना रोज़                        
हिसाब मांग जाता है।

कुएं में कुछ दिन बिताना         
मेरी मज़बूरी है
वरना मेढकों को              
' मुंह' कौन लगाता है?  

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