मेरे ऊपर भी
एक खुदा है
जो ना जप से
ना तप से
ना भोग से
खुश होता है।
ना नमाज़ उसे भाती है,
ना अज़ान उसे लुभाती है।
उसे रुपयों का भोग चाहिए,
नोटो की गड्डियां
नमाज़ के बदले चाहिए।
मैं उसकी भूख का
तोड़ ढूढ़ने निकला था,
मगर सारे रास्ते
रुपयों पे जाके
खत्म होने लगते हैं।
किस्मत का लिखा,
पढ़ने वालों के पास भी गया
वहां भी वही खुदा है।
बच्चे की दवा लेने गया
वहां भी उसी की सत्ता है।
घर का राशन भी
खुदा को
खुश करके ही मिलता है।.
इन खुदाओं को खुश
करते-करते
मैं थक गया हूं...
मरना चाहता हूं...
मगर ये जानता हूं
कि, शमशान में भी
खुदा है,
जिसे परिजनों को
मुझे जलाने से पहले
खुश करना होगा
खैर मुझे क्या
मैं तो तब तक
आज़ाद हो चुका होऊंगा
धरती के तमाम खुदाओं
और उनकी
रुपयों की भूख से...।
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