दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
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सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

इस 'कमीनी' धूप से...!!

डस रहा था बनके काला नाग भ्रष्टाचार जब, 
और कुदरत कर रही थी जम के हाहाकार जब,
ले रही थी निज उमंगें इक नया आकार तब,  
कुछ बदलने, और कुछ, बेहतरी की आस में, 
मैंने देखा स्वप्न इक, खोल आँखें जाग तब!!

स्वप्न था वो, या हकीकत थी, मेरे एहसास की, 
कुछ न कर पाने की वो, अनकहे उन्माद की, 
तब बड़े ही ध्यान से मैंने उन्हें देखा पलट कर, 
वो  थी इक पुस्तक पुरानी मेरे ही इतिहास की!!   

इतिहास खोला, तो ये जाना, क्या बिताई ज़िन्दगी? 
मौत से बदतर, नरक के ताप सी थी ज़िन्दगी, 
अब बदलना ही पड़ेगा इस बुरे इतिहास को, 
और बनानी ही पड़ेगी उदहारणों सी ज़िन्दगी!!  

और कितना वो छलेंगे अपने छद्म रसूख से, 
हम लड़ेंगे कब तलक चिर पुरानी भूख से,
अब नए युग गान खातिर रचना है एक गीत फिर,  
आओ मांगें छाह थोड़ी, इस 'कमीनी' धूप से!!

रोज़ दो-दो हाथ करते मौत से रोटी की खातिर, 
लूट लेते आधी रोटी 'सत्ता के दलाल' शातिर, 
सत्ता नहीं सौंपेंगे इन शातिरों के 'हाथ' अब,
मेरे-तुम्हारे आज, सबके मुस्तकबिल की खातिर!! 

आओ ज़रा ये प्रण करें हाथों में हाथ थाम कर,
फूंक हम सबका ये घर, न कर सकें अट्टहास अब!!
   
कुछ बदलने, और कुछ, बेहतरी की आस में, 
मैंने देखा स्वप्न इक, खोल आँखें जाग तब!!

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

सिरफिरे अंगार में...?

ये सजा सी गुफ्तगू , शोर है कुतर्क कादायरें में सब बंधे, बेकार रुदन विमर्श का

किसी ने बदले जिल्द पुरानी किताब के
कोई खोल बैठा बही पुराने हिसाब के

कोई भरसक बदल रहा रंग कैनवास के
चढ़ा रहा कोई मुलम्मे  गर्द पे, बकवास के

हर तरफ एक आलम-ए बदहवासी छा रही
पल-पल बदलती सोच में इक उदासी गा रही

अल्फाज़ जैसे कम पड़े हर बार उनकी बात में
दुहरा रही हो खुद को जैसे ज़िन्दगी उन्माद में

बेचने का खेल भौंडा चल रहा बाज़ार में
भस्म होती है जवानी सिरफिरे अंगार में

है पुरानी उनकी सारी बात, लेकिन दंभ है
मुक्तसर ये बात है खुद पे उन्हें घमंड है में 


शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

आज-कल में सबकी बारी है... !!


फ़िज़ूल कोशिश है अब हाथ मलने की,
जिद तो तेरी ही थी साथ चलने की....

पथरीली राहों पे, दर्द भी है, चुभन भी,
तेरी आदत नहीं गिर के फिर संभलने की...

मुक्तसर उम्र होती है, रौशनी के कीड़ों की,
आज-कल में सबकी बारी है जल के मरने की..

गुलाब तोड़ने में हाथ ज़ख़्मी कर लेता हूँ,
अदा सीखा दो, करीने से फूल चुनने की...

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

टर्राने का मौसम...!



कहतें हैं - बरसात में मेढक टर्राते हैं

अपने अपने तालाब के पानी पर इतराते हैं

 मगर मेढकों के टर्राने का भी एक मौसम होता है

 मगर यहाँ तो बेमौसम भी

 टर्राहट है

 अपने अपने तालाब पर झूठी

 इतराहट है

 बेचने को आतुर हैं कुछ लोग

 ये टर्राहट उसी की छटपटाहट है
कुछ बेच लेंगे

कुछ नहीं बेच पाएंगे
बचा कर सहेज कर रख लेंगे

अगले मौके के इंतज़ार में
मौका मिलने पर थोडा मसाला मिला फिर बेचेंगे

ये खरीद-फरोख्त यूँ ही चलती रहेगी
सबकी दाल अपने अपने हिसाब से गलती रहेगी

हम अपनी संस्कृति के टूटे खँडहर पर
नयी कालोनियां बनायेंगे

अपने निपट बेहूदे फ्लैट में बैठ

मेढक की तरह फिर इतरायेंगे

और हां

ख़ुशी में समवेत टर्राएंगे...



शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

बाबुल से विदा...!


साथ तुम्हारा हाथ तुम्हारा और वादा जीवन भर का!

मांग तेरी सिन्दूर मेरा और सात वचन जीवन भर का!

सम्बन्ध तेरा बंधन मेरा और प्यार निभाना जीवन भर का! 

वादा मेरा कसमें तेरी और उन्हें परखना जीवन भर का! 

मेरी खुशियाँ और आंसूं तेरे बाबुल से विदा जीवन भर का......!