दिल की नज़र से....

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बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

सिरफिरे अंगार में...?

ये सजा सी गुफ्तगू , शोर है कुतर्क कादायरें में सब बंधे, बेकार रुदन विमर्श का

किसी ने बदले जिल्द पुरानी किताब के
कोई खोल बैठा बही पुराने हिसाब के

कोई भरसक बदल रहा रंग कैनवास के
चढ़ा रहा कोई मुलम्मे  गर्द पे, बकवास के

हर तरफ एक आलम-ए बदहवासी छा रही
पल-पल बदलती सोच में इक उदासी गा रही

अल्फाज़ जैसे कम पड़े हर बार उनकी बात में
दुहरा रही हो खुद को जैसे ज़िन्दगी उन्माद में

बेचने का खेल भौंडा चल रहा बाज़ार में
भस्म होती है जवानी सिरफिरे अंगार में

है पुरानी उनकी सारी बात, लेकिन दंभ है
मुक्तसर ये बात है खुद पे उन्हें घमंड है में 


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