रेत पे रोज़ लिखता है...
गिरता है
संभलता है
फिर उठ के
चलता है...
ये इंसान
कहां सुनता है
स्वंयभू राजा है
मनमानी करता है
टूटते हैं रोज़
पर रोज़ ख़्वाब
बुनता है
रोता है,
कोसता है,
फिर हंस के
मिलता है
नादान
किसी बच्चे सा
रोज़ ही बहलता है
आभावों से दोस्ती की
फितरत बनाता है
रेत पे रोज़
लिखता है
जो पल में
मिट जाता है
जिद्दी है वो
दोबारा लिखने को
हर रोज़
आता है
ये इंसान
कहां सुनता है।
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