दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
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सोमवार, 20 सितंबर 2010

फिर भी इक ये टीस है

एक पुराना सा था जो, सम्बन्ध वो भी ख़त्म हुआ,
जैसे दिल के कमरों से गर्द-ओ-गुबार हट गया.

खिड़कियाँ फिर खोल मन की निहारने बैठा हूँ सब,
आज फिर से धूप का टुकड़ा नया सा भर गया.

अटका हुआ था एक खटका, रोकता जुबान था,
आज ढंग  से उसको  सुपुर्द, काग़ज़ों के कर दिया.

अब वहां काग़ज़ दबा हैं  इबारतों के बीच में,
'और मैं, आराम से हूँ', ख़त में मैंने लिख दिया.

अब मैं चाहे जो करूँ आज़ाद हूँ सब बन्धनों से,
फिर भी इक ये टीस है, की, बेहद अकेला हो गया.

तनहईयों की सारी ही  फेहरिस्त अब ग़ुम हो गई,
मजमून लेकिन था कुछ ऐसा की मझमे वो घर कर गया.



4 टिप्‍पणियां:

Asha Joglekar ने कहा…

अब मैं चाहे जो करूँ आज़ाद हूँ सब बन्धनों से,
फिर भी इक ये टीस है, की, बेहद अकेला हो गया.

वाह बहुत सुंदर ।

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया...

Dr Xitija Singh ने कहा…

achha likha hai aapne ....

अब मैं चाहे जो करूँ आज़ाद हूँ सब बन्धनों से,
फिर भी इक ये टीस है, की, बेहद अकेला हो गया.
nice thought ...:)

vidhi ने कहा…

एक पुराना सा था जो, सम्बन्ध वो भी ख़त्म हुआ,जैसे दिल के कमरों से गर्द-ओ-गुबार हट गया.
खिड़कियाँ फिर खोल मन की निहारने बैठा हूँ सब,आज फिर से धूप का टुकड़ा नया सा भर गया.


bhut acche hai ye lines......