इक गुलशन था,
थोड़ा उजड़ा
थोड़ा हरा-हरा था
उसमें बरगद सी मां थीं
मैं गुलाब का पौधा था
पीपल जैसे पिता
सूख कर टूट चुके थे
गुलशन में
दो नन्हीं परियां रहती थीं...
बरगद और गुलाब से दोनो
काफी घुली-मिली थीं
एक दिन एक माली आया
परियों को लेकर चला गया
बरगद आधा सूख गया
गुलाब भी कुम्हला सा गया
पर बरगद की छांह तले
गुलाब फिर उग आया था
लेकिन परियों की चहल-पहल
वो भी कभी भुला ना पाया
बरगद और गुलाब दोनो
तन्हा से उस गुलशन में
नए मौसम की आस में
जीने लगते थे
मौसम दर मौसम बदले
इंतज़ार बेहद लंबा था
मौसम भी बदला
लंबे इंतज़ार के बाद
तब तक बरगद
और सूख गया
गुलाब में नईं कलियां आईं
पर खिलने से पहले ही
वो मुरझा गईं
अब तो बरगद पूरा सूखा
और हवा के झोंके से
बरगद भी गिर गया
अब एक अकेला
पौध गुलाब का...
उसे अकेले लड़ना था
पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण
हर ओर हवा उल्टी ही थी...
कितने गुलाब बिखरे मिट्टी में
कितनी कलियां खिल ना पाईं
अब गुलाब को छांह नहीं
बरगद भी अब साथ नहीं
उम्र गुलाब की कितनी होगी
ये आप बताएं....?