दिल की नज़र से....

दिल की नज़र से....
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बुधवार, 31 अगस्त 2016

अंजाम की फिक्र...!

तुम क्या गए, रौनकें गईं      इस जहान की,
ज्यों चांद छोड़ गया महफिल आसमान की।

वो तोड़ आया सारे रिश्ते          एक पल में,
अब ढूढ़ता निशानी        खुद के पहचान की।

बबूल के शूलों ने उसकी तक़दीर क्या लिखी,
वरना वो भी बेल थी,             मेरे मचान की

जब उधर से               पत्थरों की आमद थी,
इधर मस्जिद में थीं         रौनके अज़ान की। 

तमाम लानतें मुझपे भेज       वो चल दिया,
अब तक समझ ना आई फितरत इंसान की।

हर ओर जब           आईनों जैसे लोग मिले,
तब तलाशी ली            अपने गिरहबान की।

दिलचस्प आग़ाज़ था           उस कहानी का,
मुझे फिक्र थी                  उसके अंजाम की।

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

हवा के रुख का मारा वो...

किनारों से टकरा के              समंदर टूट जाता है,
मगर पत्थर पे सर देने से  कब वो बाज आता है।

माना हर कहानी                सच नहीं होती,मगर, 
हर नया किरदार            ज़ेहन में घर बसाता है।


जुदाई क्या है                       ये उनसे ज़रा पूछो,
जिनका कोई अज़ीज़       सफ़र में छूट जाता है।


मुक़ाबिल आईने के                   मैं ही हूं हरदम,
तभी हर बार मुझसे            वो मुंह की खाता है।


उसे हामी मिलेगी                या नकारा जाएगा?
हवा के रुख का मारा वो   ना अब शर्तें लगाता है।


गुरुवार, 25 अगस्त 2016

धरती के खुदा!

मेरे ऊपर भी
एक खुदा है
जो ना जप से
ना तप से
ना भोग से
खुश होता है।
ना नमाज़ उसे भाती है,
ना अज़ान उसे लुभाती है।
उसे रुपयों का भोग चाहिए,
नोटो की गड्डियां
नमाज़ के बदले चाहिए।
मैं उसकी भूख का
तोड़ ढूढ़ने निकला था,
मगर सारे रास्ते
रुपयों पे जाके
खत्म होने लगते हैं।
किस्मत का लिखा,
पढ़ने वालों के पास भी गया
वहां भी वही खुदा है।
बच्चे की दवा लेने गया
वहां भी उसी की सत्ता है।
घर का राशन भी
खुदा को
खुश करके ही मिलता है।.
इन खुदाओं को खुश
करते-करते
मैं थक गया हूं...
मरना चाहता हूं...
मगर ये जानता हूं
कि, शमशान में भी
खुदा है,
जिसे परिजनों को
मुझे जलाने से पहले
खुश करना होगा
खैर मुझे क्या
मैं तो तब तक
आज़ाद हो चुका होऊंगा
धरती के तमाम खुदाओं
और उनकी

रुपयों की भूख से...।

शनिवार, 20 अगस्त 2016

मैं कौन हूं?

उसकी यादों से         गुज़र आया मैं
तमाम खुश्बुओं से       नहा आया मैं।

वो अपने रस्ते        जा चुका कब का
उन्हीं रास्तों से      हाल पूछ आया मैं।

कुहुक उठती थी     जिस राग में कोयल
उन्हीं रागों को  वादियों से चुरा लाया मैं।

इक कचहरी खुली थी     फैसले के लिए
वहां सारी तकरीरें  खोखली कर आया मैं।

शहर जो इतराता था     अपने अदब पर
उसी शहर से    सारे अदब उड़ा लाया मैं।

बस वजीर से ही आस थी   उन्हें खेल में
उसे अपने प्यादे से       पीट आया मैं।

चौरासी खंभे थे     जिनकी पहचान कभी
उन खंभों की हकीकत बयां कर आया मैं।

इतना सब करके भी   जब मन ना भरा
पाबंदीशुदा सारे      नारे लगा आया मैं।


गुरुवार, 18 अगस्त 2016

मेढकों को 'मुंह' कौन लगाता है

वो, हर उस खेल में,
मुझसे जीत जाता है
जहां उसे 'खुद' को उठाना,
मुझे गिराना आता है।

हूं परेशान,                
मैं अपनी हालत पर
जिसपे दुनिया को हंसना,      
मुझे रोना आता है। 

वो मेरा 'शागिर्द' था,              
अब 'सीख' गया है
तमाम चालें,   
जिसे सोच 
'जिस्म' कांप जाता है।

उसकी हर मात का                      
क्या काट लाऊं,
ये बुरा ख्वाब मुझे रोज़                 
जगा जाता है।

नामालूम कैसी सोच है                 
आज लोगो में
इक सिरा थामता हूं,             
दूजा छूट जाता है। 

पीछे छूट चुके                          
तमाम लम्हों का,
आईना रोज़                        
हिसाब मांग जाता है।

कुएं में कुछ दिन बिताना         
मेरी मज़बूरी है
वरना मेढकों को              
' मुंह' कौन लगाता है?  

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

दुनिया फतह का सपना...

तुम्हारी सोच
एक दिन
मैं बदल दूंगा।
तुम्हारे दिमाग में
मैं अपनी सोच के
'पारे' भर दूंगा।
बिना नारों
बिना वादों के।
बस थोड़ी सी
'चिंगारी' उठने का
इंतज़ार करो।
उस से मैं
'आग' जलाऊंगा

तब पका दूंगा...
'घालमेल की खिचड़ी'
और फिर तुम
जनम-जनम से भूखे
किसी 'कुत्ते' की माफिक
जीभ लपलपाते आओगे
बन जाओगे मेरे 'चारण'
और फिर
मेरे ही 'सुर' में
तुम भी गाओगे।
अगली 'खिचड़ी' की आस में...
चाटने लगोगे मेरे तलवे।
उस दिन मैं...

हां! ठीक उसी दिन से
दुनिया फतह करने का
सपना देखना
शुरु कर दूंगा।

बुधवार, 10 अगस्त 2016

रोज जियो, रोज मरो..

आप रहते हैं झोपड़े में
तो एक बात
क्यों नहीं आती
आपके 'खोपड़े' में।
महलों के
सपने देखना बंद क्यों नहीं करते।
आज भी सामंत हैं
जो आपको
अपनी 'रियाया' समझते हैं
और आप हैं कि खुद को
'राजा' समझते हैं...
बंद करो ये दिवास्वप्न
मध्यमवर्गीय लोगों।
तुम प्राचीन काल सेअब तक
महज एक 'यंत्र' हो...
जिसे कोई और चलाता है।
राज उसका है,
समाज उसका है
तुम तो
वो दंतविहीन सांप हो जो
आधुनिक सामंतों की
बीन पर नाचता भर है...
और गुमान
ये पालता है
कि उसकी 'फुफकार' भर से
सामंत डर जाएंगे
अरे, छोड़ो...
रोज जियो, रोज मरो..

चार कंधो पे जाती है....

हमे तपता हुआ पाकर, 
आग फिर भी तपाती है...
किसी एक की जलन खातिर, 
वो सब पे नश्तर चलती है..
वो ही है "ब्रम्ह" एक,
गुमान उसको, चिढ़ाती है,
हिकारत से
सभी को देखती
और थूक जाती है...मगर
सच्चे लोगो के बीच उसकी
जहालत खुलती जाती है,
तेरा क्या वास्ता
दुनिया के लोगो से...
मगर ये याद रख
एक लाश भी
चार कंधो पे जाती है....

सोमवार, 8 अगस्त 2016

मैं जल्द आऊंगा...

मैंने नहीं,
तुमने किया था,
सवाल।
जिसका
जवाब खोजते-खोजते
मिले मुझे
अनगिनत सवाल।
सवालों का ढेर
मेरे सामने पड़ा है।
उस वक्त
तुम्हारे
उस एकमात्र सवाल का
जवाब नहीं था
मेरे पास।
आज
सवालों के इस ढेर में
किसी का भी
जवाब नहीं मेरे पास।
वैसे तुम्हारा भी
जवाब नहीं...
मुझे सवालों में
उलझा के तुम
अपनी राह चल दिए।
आज तुम
नए जवाबोंके संग
मस्त हो,
और मैं
सवालों के बोझ तले
पशोपेश में हूं।
तुम्हारा पीछा छुड़ाने का
ये नायाब तरीका
मुझे पसंद आया
मगर मैंने,किसी पर इसे
नहीं आज़माया।
किसी को भ्रम में डालना
उसकी मानसिक-हत्या
करने जैसा है।
तुम हत्यारे हो...
मगर दिल के
किसी कोने में
अब भी हमारे हो...।
जिस दिन वो कोना
ओझल हो जाएगा
उम्र के दिए मोतियाबिंद से
तब, मैं तुमसे
जवाब मागूंगा....।
तुम्हारा पुराना सवाल
तुम्हें याद दिलाऊंगा
जवाबों के साथ-साथ
अपने गुजारे
सभी तन्हा लम्हों का
हिसाब मागूंगा...
तैयार रहना....
मैं जल्द आऊंगा...
इसी जीवन में। 

शनिवार, 6 अगस्त 2016

रेत पे रोज़ लिखता है...

गिरता है
संभलता है
फिर उठ के
चलता है...
ये इंसान
कहां सुनता है
स्वंयभू राजा है
मनमानी करता है
टूटते हैं रोज़ 
पर रोज़ ख़्वाब 
बुनता है
रोता है,
कोसता है,
फिर हंस के 
मिलता है
नादान
किसी बच्चे सा 
रोज़ ही बहलता है
आभावों से दोस्ती की
फितरत बनाता है 
रेत पे रोज़ 
लिखता है
जो पल में
मिट जाता है
जिद्दी है वो
दोबारा लिखने को
हर रोज़ 
आता है
ये इंसान
कहां सुनता है।

गला कटवाने के बाद....

आंकड़ों में बदल जाती हैं
वारदातें...
कुछ दिनों के बाद...
इतिहास बन जाती हैं
वारदातें...
कुछेक सालों बाद...
ना आंकड़ें बदलते हैं
ना ही इतिहास...
मरते जाते हैं मासूम...
एक-एक के बाद।
ये आलम-ए-वहशत है
जिसे ना खत्म होना है...
मान बैठते हैं हम
हर एक 
हादसे के बाद...
सियासत के खेल में
पिसता है मासूम
सियासी लोग 
अपने को बचा लेते हैं
थोथे बयानों के बाद...
वो जिसकी तामीर हुई
नफ़रती बुनियाद पर
उसे फिर गले लगा लेते हैं
हर बार
गले कटवाने के बाद...।